महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन | गांधी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां

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महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन | गांधी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां

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महात्मा गाँधी का जीवन परिचय (1869-1948)

महात्मा गाँधी (मोहनदास करमचन्द गाँधी) का जन्म काठियावाड़ के पोरबन्दर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ। उनके पिता पोरबन्दर के दीवान थे। बाद में उनके पिता राजकोट के दीवान होकस्वहाँ गये और वहीं उन्होंने शिक्षा प्रारम्भ की। जब गाँधी जी 16 वर्ष के थे, पिता का देहावसान हो गया। स्कूल में गाँधीजी को धर्म की शिक्षा नहीं मिली, किन्तु आत्मबोध या आत्म-ज्ञान के मार्ग, पर वे चलते रहे और वातावरण से कुछ धार्मिकता उन्हें मिलती रही। गाँधीजी के नेतृत्व में भारत ने 15 अगस्त सन् 1947 को स्वतन्त्रता प्राप्त की। इस महान समाजसेवी एवं दूरदर्शी राजनीतिज्ञको को संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग सहन न कर सके और 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने भारत-पाकिस्तान बंटवारे के विवादास्पद बिन्दुओं पर मतान्तर के कारण गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।

महादेव देसाई के अनुसार- “गाँधीजी ने प्राय: यह बताया है कि शिक्षा को बालक और बालिका के समस्त गुणों का विकास करना चाहिये। वह शिक्षा ठीक नहीं कही जा सकती, जो बालकों और बालिकाओं को पूर्ण मनुष्य और उपयोगी अच्छे नागरिक नहीं बनाती है।” गाँधीजी के आदर्शवादी विचार ही उनके शिक्षा दर्शन की आधारशिला है। वे हृदय की शिक्षा के साथ-साथ शारीरिक श्रम को भी महत्व देते थे तथा बालक को आज्ञाकारी एवं आत्मानुशासित बनाने की प्रेरणा उनकी शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था। महात्मा गांधी का विश्वास आदर्शवाद में था। उनका आदर्शवाद भारतीय आदर्शवाद के सिद्धान्तों पर आधारित था ।

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन निम्नलिखित पाँच प्रमुख सिद्धान्तों पर आधारित है- (1) सत्य। (2) अहिंसा। (3) अपरिग्रह । (4) निर्भीकता। (5) सत्याग्रह।

गाँधीजी का शिक्षा-दर्शन
Educational Philosophy of Gandhiji in hindi

गाँधीजी का शिक्षा दर्शन उनके जीवन-दर्शन पर आधारित है। उनकी सत्य, अहिंसा, त्याग, निष्ठा एवं सहानुभूति आदि मानवीय गुणों में श्रद्धा थी और जीवन-पर्यन्त रही। इन मानवीय मूल्यों को शिक्षा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। गाँधीजी के जीवन में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक सभी पक्षों को स्थान मिला क्योंकि वे शिक्षा कीउपयोगिता समझते थे। उन्होंने शिक्षा की गतिशीलता के पक्ष को अपने में समाहित किया था।

डॉ. एम. एस. पटेल ने कहा है, “गाँधीजी ने उन महान् शिक्षकों एवं उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में अनोखा स्थान प्राप्त किया, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में नव-ज्योति दी है। गाँधीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का निष्पक्ष अध्ययन सिद्ध करता है कि वे पूर्व में शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार के प्रारम्भिक बिन्दु हैं।”

गाँधीजी के शिक्षा-दर्शन के सिद्धान्त

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(1) शिक्षा द्वारा बालक की शारीरिक, मानसिक तथा चारित्रिक क्षमताओं को विकसित किया जा सकता है। प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना कर बालक में आदर्श नागरिक के गुणों का विकास शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।

(2) बालक का सम्यक् विकास (मानसिक शारीरिक एवं आध्यात्मिक) भी शिक्षा द्वारा सम्भव है। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिये ताकि छात्र में उसके प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण उत्पन्न हो सके।

(3) शिक्षा को ‘उत्पादकता से जोड़ना चाहिये,जिससे बालक में श्रम के प्रति निष्ठा एवं आत्म-निर्भरता का भाव पनप सके। बालको की शिक्षा को क्रियात्मक पक्ष से जोड़ा जाना चाहिये ताकि स्वानुभव को स्थान देकर उसे क्रियान्वित किया जा सके। इसके लिये ‘हस्तकला व्यवसाय’ को उन्होंने उचित समझा।

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(4) शिक्षा के अन्य विषयों का सह-सम्बन्ध हस्त-कौशल के कार्यों से होना चाहिये ताकि सिद्धान्त एवं क्रिया में सामंजस्य स्थापित किया जा सके।

(5) राष्ट्रीय स्तर पर 7 से 14 वर्ष तक की आयु के बालों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये। शिक्षा सत्य, अहिंसा एवं आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित होनी चाहिये।

(6) विद्यालय शिक्षालय’ होने चाहिये अर्थात् वहाँ बालक को सक्रिय रहकर शिक्षा ग्रहण करनी है तथा उपयोगी अन्वेषण करना है। शिक्षा द्वारा बालक के लिये विद्यालय ही सामाजिक संस्था मानी जा सकती है, जहाँ कि वह अपने समस्त मानवीय गुणों का विकास करते हुए अपना समाजीकरण करता है।

(7) शिक्षा योजना में सेकण्डरी स्तर तक अंग्रेजी (आंग्ल भाषा) शिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिये।

(8) शिक्षा जब हस्त-कौशल से जुड़ी होगी तो उत्पादन बढ़ेगा। वह उत्पादन व्यक्ति की आर्थिक लाभ देगा क्योंकि सरकार उसे खरीदेगी।

गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का अर्थ

महात्मा गाँधीजी के कथनानुसार, “साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न शिक्षा का प्रारम्भ। यह केवल एक साधन है, जिसके द्वारा पुरुष और स्त्री को शिक्षित किया जा सकता है।” गाँधीजी ने शिक्षा को सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास का एक सबल साधन बताया है। उनके अनुसार,सच्ची शिक्षा को उन्होंने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया “सच्ची शिक्षा वही है जो बालकों की आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों को व्यक्त और प्रोत्साहित करे। मस्तिष्क, आत्मा, शरीर एवं हृदय सभी का विकास इस क्रिया के अन्तर्गत आता है।

गाँधीजी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

गाँधीजी ने मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के उद्देश्यों को दो भागों में विभक्त किया है-(अ) शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य एवं (ब) शिक्षा के सर्वोच्च उद्देश्य। (स) शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य

शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य

1. सन्तुलित व्यक्तित्व का उद्देश्य

गाँधीजी के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण कर उसे विकसित करना है। व्यक्तित्व के निर्धारक (मानसिक, संवेगात्मक, शारीरिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक) पक्षों में सन्तुलन एवं सामंजस्य रखते हुए उन्हें विकसित करना है। मानसिक क्रियाओं को संचालित करने के लिये हृदय तथा मस्तिष्क का तारतम्य बने रहना चाहिये एवं उन्हें प्रशिक्षणnभी मिलना चाहिये। शारीरिक विकास हेतु आसन एवं व्यायाम का प्रशिक्षण दिया जाना.चाहिये। गाँधीजी का यह कथन तर्कसंगत है, “शरीर, मन तथा आत्मा का उचित सामंजस्य सम्पूर्ण व्यक्तित्व की रचना करता है और यही शिक्षा की सच्च मितव्ययता का निर्माण करता है।

2.जीविकोपार्जन का उद्देश्य

गाँधीजी ने शिक्षा को जीविकोपार्जन का प्रमुख उद्देश्य माना है। यदि शिक्षा, जो रोजी-रोटी न दे सके, आत्म-निर्भर न बनाये, बेरोजगार रहने दे, वह व्यर्थ है। बिना आत्म-निर्भरता के व्यक्तित्व का कोई पक्ष विकसित नहीं हो सकता। साथ ही सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं भौतिक क्षेत्र में विकास सम्भव है। गाँधीजी के अनुसार-“शिक्षा को बालकों को बेरोजगारी के विरुद्ध एक प्रकार की
सुरक्षा देनी चाहिये। सात वर्ष का कोर्स समाप्त करने के उपरान्त 14 वर्ष की आयु में बालक को कमाने वाले व्यक्ति के रूप में विद्यालय से बाहर भेज दिया जाना चाहिये।”

3. नैतिक या आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य

गाँधीजी ने शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र-निर्माण बताया। वे साक्षरता की अपेक्षा चरित्र-निर्माण पर अधिक बल देते थे। उनके कथनानुसार ‘ज्ञान’ तभी सार्थक है, जब चरित्र-निर्माण की भूमिका निभाये। गाँधीजी के अनुसार, “समस्त ज्ञान का उद्देश्य चरित्र-निर्माण होना चाहिये। व्यक्तित्व की पवित्रता को समस्त चरित्र-निर्माण का आधार
होना चाहिये। चरित्र के बिना शिक्षा और पवित्रता के बिना चरित्र व्यर्थ है।”

4. सांस्कृतिक उद्देश्य

गाँधीजी के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य सांस्कृतिक ज्ञान एवं उसका संरक्षण है। दैनिक जीवन में जो व्यवहार होते हैं, एक सुसभ्य तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के लिये वे आवश्यक हैं तथा उनके मूल्य हैं। संस्कृति मानसिक कार्य का परिणाम न होकर आत्मा का गुण है, जो कि व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता है। अतः उनका कथन है कि “संस्कृति नींव है, प्रारम्भिक वस्तु है। तुम्हारे सूक्ष्म व्यवहार में
इस प्रकट होना चाहिये।”

5. मुक्ति का उद्देश्य

गाँधीजी के अनुसार, “शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मुक्ति का उद्देश्य है, जिसका अर्थ है, वर्तमान जीवन में सभी प्रकार की दासता से स्वतन्त्रता।” यह दासता सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौतिक एवं बौद्धिक कैसी भी हो सकती है? उनका कहना था कि शिक्षा संस्थाओं में प्राप्त ज्ञान द्वारा ही बालक को आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का मार्ग दिखाना चाहिये। अत: उनका सीधा अर्थ शिक्षा द्वारा आत्मा को सांसारिक
बन्धनों से मुक्त करना है। मुक्ति की भावना शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। कांट ने भी शिक्षा का.मूल उद्देश्य व्यक्ति को आत्म-नियन्त्रण एवं स्वतन्त्रता में सामंजस्य स्थापित करना, सिखलाना बतलाया है। बिना मुक्ति के वह यान्त्रिक हो सकती है।

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(ब) शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य

गाँधीजी के अनुसार,शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य परम सत्य या अन्तिम वास्तविकता (ईश्वर) से साक्षात्कार करना है। सत्य का अन्वेषण एवं आत्मा का ज्ञान आवश्यक है ताकि उसमें नैतिक गुणों का प्रादुर्भाव हो सके तथा उसका चारित्रिक विकल्प खोजा जा सके। आत्मानुभूति या आत्म-साक्षात्व के लिये ‘आत्मा’ का प्रशिक्षण आवश्यक है।

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य

गाँधीजी ने शिक्षा का उद्देश्य सर्वप्रथम वैयक्तिक विकास माना है। वैयक्तिक गुणों के विकार के बिना वह सामाजिक विकास के बारे में कुछ भी सोच नहीं सकते। किसी भी राष्ट्र या समाज के विकास के लिये वहाँ का प्रत्येक व्यक्ति (जो समाज की एक इकाई है) पूर्णत: विकसित होना चाहिये। गाँधीजी ने वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास के उद्देश्य को एक-दूसरे का पूरक कहा है। अत: दोनों में समन्वय करके ही राष्ट्र या समाज का विकास सम्भव है। गाँधी जी ने विद्यालय को सामुदायिक केन्द्र’ माना, ताकि दोनों के द्वारा एक-दूसरे के समीप आकर सेवा एवं सामाजिक सम्पर्क किया जा सके। डॉ. एम. एस. पटेल ने इस सम्बन्ध में कहा है कि, “गाँधीजी के दर्शन का सार यह है कि वैयक्तिकता का विकास.सामाजिक वातावरण में हो सकता है, जहाँ समान रुचियों और समान क्रियाओं पर व्यक्ति पोषित हो सकता है।”

गाँधीजी के शिक्षा-दर्शन की विशेषताएँ / Characteristics of Education Philosophy of Gandhiji

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(1) गाँधीजी ने शिक्षा का उद्देश्य “व्यक्ति में निहित पूर्णता को उभारना बताया।” अतः उनके शिक्षा-दर्शन का आधार तो आदर्शवाद था, परन्तु क्रियान्विति एवं उपलब्धियों में उन्होंने प्रकृतिवाद तथा प्रयोजनवाद का सहारा लिया। उनका शिक्षा दर्शन वर्तमान आवश्यकताओं के अनुकूल है। बालकों में क्रियाशीलता तथा ‘करके सीखना’ सिद्धान्त को विकसित करने के लिये उन्होंने प्रयोजनवाद का सहारा लिया।

(2) वे बालक में सहयोग, पारस्परिक प्रेम, आध्यात्मिक मूल्यों के विकास तथा चारित्रिक विकास पर बल दिया। इसके लिये कितना निष्ठा, सहनशीलता एवं मिलनसारिता जैसे गुणों का विकास करने के पक्ष में थे।

(3) उन्होंने और संयम, कष्ट एवं त्याग क्यों न करना पड़े? वे शारीरिक, चारित्रिक एवं बौद्धिक विकास के समर्थक थे। उनका मानना था कि परिश्रम के प्रति निष्ठा आर्थिक विकास का माध्यम है।

(4) सांस्कृतिक विकास हेतु भी गाँधीजी का शिक्षा-दर्शन प्रकाश डालता है क्योंकि आपने शिक्षा को संस्कृति की नींव कहा तथा सूक्ष्म व्यवहार को प्रकटीकरण।

(5) उनके अनुसार बेरोजगारी को दूर करने के लिये पाठ्यक्रम में प्राथमिक स्तर पर हस्तकला का विषय रखें ताकि निर्मित वस्तुओं को छात्र बेचकर आत्म-स्वावलम्बी बन सकें।

(6) आपके दर्शन में सामंजस्यपूर्ण व्यक्तित्व का विकास दृष्टिगोचर होता है। शिक्षा से बालक के मन, मस्तिष्क तथा आत्मा का विकास होता है तथा मानसिक, भावात्मक, शारीरिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में सामंजस्य स्थापित कर शिक्षा उसे पूर्ण मानव (सन्तुलित व्यक्तित्व का व्यक्ति) बनाती है।

गाँधीजी का पाठ्यक्रम-बुनियादी शिक्षा

गाँधीजी का ऐसे पाठ्यक्रम में विश्वास था, जो भौतिक तथा सामाजिक वातावरण का सृजन कर बालकों को समुचित ज्ञान दे। बालकों को क्रियाशीलता से जोड़ने के लिये उन्होंने अपने पाठ्यक्रम में ‘हस्तकला के विषय’ जोड़े। गाँधीजी की ‘बुनियादी शिक्षा’ इसी पर आधारित है। तकली द्वारा सूत कातना, उससे कपड़ा बुनना उन्होंने बालकों को सिखाया।
बेसिक शिक्षा योजना के पाठ्यक्रम में गाँधीजी ने निम्नलिखित हस्त-कौशल के कार्यों का निर्धारण किया-

1. क्राफ्ट के लिये- (क) कताई-बुनाई, (ख) धातु का काम, (ग) लकड़ी का काम, (घ) गत्ते का काम एवं (ङ) मिट्टी का काम।

2. शिक्षण का माध्यम- मातृभाषा ही रखा।

3. व्यावहारिक समस्याओं के लिये- दैनिक जीवन की व्यावहारिक समस्याओं के हल के लिये व्यावहारिक गणित, रेखागणित एवं वाणिज्य के विषय रखे।

4.सामाजिक व्यवहार के लिए – समाज विज्ञान के विषय-इतिहास, भूगोल तथा नागरिकशास्त्र रखे।

5. स्वास्थ्य विज्ञान – बालकों को शिक्षा के साथ-साथ प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सा सम्बन्धी जानकारी मिलती रहे, इसके लिये स्वास्थ्य विज्ञान का पाठ्यक्रम भी जोड़ा।

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6.सामान्य विज्ञान- इसके अन्तर्गत जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, शरीर विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान तथा भौतिक विज्ञान विषय भी जोड़े। साथ में कौशल एवं मनोरंजन के लिये संगीत तथा ड्राइंग के विषय भी पाठ्यक्रम में जोड़े। बालिकाओं के लिये हस्तकला विषयों के स्थान पर गृह-विज्ञान को शिक्षण हेतु उपयुक्त समझा।

गाँधीजी के अनुसार शिक्षण-पद्धति

महात्मा गांधी का शिक्षा दर्शन के अनुसार निम्नलिखित शिक्षण पद्धतियां हैं –

1. अनुभव द्वारा सीखना –गाँधीजी ने शिक्षण-पद्धति में ‘अनुभव’ को सर्वोपरि स्थान दिया। ज्ञान तभी ग्रहण किया जा सकता है, जबकि वह स्वानुभव पर आधारित हो। यह स्थायी तथा व्यावहारिक जीवन में काम आने वाला होगा।

2. क्रिया द्वारा सीखना – गाँधीजी ने कहा है कि बिना ‘क्रिया’ के सीखना सम्भव नहीं। इसीलिये प्राथमिक स्तर पर उन्होंने ‘हस्तकला’ प्रशिक्षण को शिक्षण में स्थान दिया है।

3. सीखने की प्रक्रियाओं में समन्वय – गाँधीजी ने सीखने की प्रक्रिया में विभिन्न विषयों में समन्वय स्थापित करने पर बल दिया और इसीलिये ‘हस्तकला’ के अन्य सैद्धान्तिक विषयों से भी सह-सम्बन्ध स्थापित कर गठन कराना चाहिये।

4.शारीरिक अंगों का विवेकपूर्ण प्रयोग -बालक की माँसपेशियों के प्रशिक्षण के लिये शरीर के प्रत्येक अंग को प्रशिक्षण देना आवश्यक है।
गाँधीजी के अनुसार, मस्तिष्क को सच्ची शिक्षा शारीरिक अंगों-हाथ, आँख, नाक एवंनकान आदि के उचित अभ्यास और प्रशिक्षण से प्रदान की जा सकती है। मस्तिष्क के विकास का यह एक विवेकपूर्ण तरीका है।

5. मनसा, वाचा, कर्मणा में सम्बन्ध स्थापित कर सिखाना – गाँधीजी के अनुसार भारतीय शिक्षण पद्धति के श्रवण, मनन और स्मरण इन तीनों का पाठन, विचार (चिन्तन) तथा क्रिया द्वारा सीखने में प्रयोग किया जा सकता है। ज्ञान के लिये उपरोक्त तीनों संक्रियाओं का पारस्परिक सम्बन्ध भी आवश्यक है।

गाँधीजी के अनुसार शिक्षक का स्थान

गाँधीजी आदर्शवाद में अधिक विश्वास रखते थे, परन्तु इसके साथ उन्होंने प्रयोजनवाद का भी सहारा लिया अर्थात् अनुभव एवं क्रिया द्वारा शिक्षक को शिक्षण कार्य करना चाहिये। अध्यापक एक मार्गदर्शक तथा मित्र के रूप में बालक का पथ-प्रशस्त करता रहे, यह उनका विचार था। उन्होंने शिक्षक को सदैव समयानुरूप परिवर्तित होने एवं बालकों पर उचित प्रभाव डालते रहने के लिये अनुग्रह किया। वे चाहते थे कि यदि हम बालक का सर्वांगीण विकास चाहते हैं तो शिक्षक में निम्नलिखित गुण होने अपेक्षित हैं-

(1) वह विषय का पूर्ण ज्ञाता होना चाहिये। (2) उसे सदैव मैत्रीपूर्ण ढंग से बालक के मनोभावों को समझकर उसे मार्ग-दर्शन देना चाहिये। (3) उसे मनोवैज्ञानिक होना चाहिये ताकि वह बालकों की रुचियों, क्षमताओं तथा व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर शिक्षण की व्यवस्था कर सके। (4) अध्यापक को यह ज्ञान होना चाहिये, कि बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन कसे किया जाय? (5) बालक की जिज्ञासा को प्रोत्साहन देते रहना चाहिये। (6) शिक्षक को मिलनसार, मृदुभाषी, कर्तव्यपरायण, संयमी, परिश्रमी, चरित्रवान तथा क्षमाशील होना चाहिये। (7) शिक्षक को बालक के विचारों आकांक्षाओं तथा परेशानियों के प्रति विधियों तथा शैक्षिक प्रयोगों का प्रयोग करते रहना चाहिये।

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