पर्यावरण शिक्षा का महत्त्व | CTET ENVIRONMENT PEDAGOGY

दोस्तों अगर आप CTET परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो CTET में 50% प्रश्न तो सम्मिलित विषय के शिक्षणशास्त्र से ही पूछे जाते हैं। आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com आपके लिए पर्यावरण विषय के शिक्षणशास्त्र से सम्बंधित प्रमुख टॉपिक की श्रृंखला लेकर आई है। हमारा आज का टॉपिक पर्यावरण शिक्षा का महत्त्व | CTET ENVIRONMENT PEDAGOGY है।

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पर्यावरण शिक्षा का महत्त्व | CTET ENVIRONMENT PEDAGOGY

पर्यावरण शिक्षा का महत्त्व | CTET ENVIRONMENT PEDAGOGY
पर्यावरण शिक्षा का महत्त्व | CTET ENVIRONMENT PEDAGOGY

CTET ENVIRONMENT PEDAGOGY

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पर्यावरण शिक्षण का महत्व / importance of evs teaching

सुख एवं शान्तिपूर्ण मानव जीवन के लिए पर्यावरण अत्यन्त उपयोगी है। स्वच्छ एवं निरापद पर्यावरण मानव के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। किसी भी देश, राष्ट्र तथा समाज का वातावरण जितना विशुद्ध एवं प्रदूषण रहित होगा वहाँ के व्यक्ति, जीव-जन्तु तथा वहाँ का सामाजिक जीवन उतना ही अधिक स्वस्थ, समृद्ध एवं उन्नत होगा। पर्यावरण के संरक्षण के परिणामस्वरूप हम स्वच्छ जल, वायु एवं भोजन प्राप्त कर सकेंगे। विभिन्न रोगों से अपने शरीर और मस्तिष्क की रक्षा कर सकेंगे। अतः मानव जाति को प्रगति के लिए पर्यावरण शिक्षा आवश्यक है।

(1) वनों की सुरक्षा-वनों का हमारे जीवन एवं पर्यावरण में विशेष महत्त्व है। पर्यावरण की शिक्षा द्वारा हम वनों को विभिन्न प्रकार से होने वाली हानियों से बचा सकते हैं और उनकी सुरक्षा हेतु कदम उठा सकते हैं।

(2) वनीकरण-वन हमारे लिए बहुउपयोगी हैं। वनों से हमें इमारती लकड़ी, औषधियाँ, गोंद, कागज, वस्त्र आदि प्राप्त होते हैं। वनों का हमारे जीवन एवं पर्यावरण में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान को देखते हुए बड़े पैमाने पर वनीकरण कार्यक्रम को प्रोत्साहित किया जाए । पर्यावरण शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों को वनीकरण का महत्त्व समझाकर इस दिशा में प्रेरित किया जा सकता है।

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(3) पर्यावरण सन्तुलन–पर्यावरण शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों को पर्यावरण सन्तुलन की मानव जगत के लिए उपयोगिता समझाकर पर्यावरण सन्तुलन की ओर प्रेरित किया जा सकता है।

(4) अन्धविश्वासों से मुक्ति-पर्यावरण शिक्षा द्वारा पूर्व से चले आ रहे अन्ध- विश्वासों से बचा जा सकता है। पूर्व में चन्द्रमा की देवता के रूप में पूजा की जाती थी।  परन्तु आज यह सोचा जा चुका है कि यह पृथ्वी का एक उपग्रह है।

(5) जनसंख्या में वृद्धि-लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या एवं शहरीकरण के कारण पर्यावरण प्रदूषण हमारे सामने एक ज्वलन्त समस्या है। परिवार नियोजन का सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए पर्यावरण शिक्षा के द्वारा विद्यार्थियों के मस्तिष्क में जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों के विषय में ज्ञान कराया जा सकता है।

(6) समन्वित शिक्षा-पर्यावरण शिक्षा को अन्य विषयों से समन्वित करके विद्यार्थियों को यह अनुभव कराया जा सकता है कि पर्यावरण शिक्षा कोई पृथक् इकाई न होकर सभी विषयों से सम्बन्धित इकाई है।

(7) प्रदूषण की रोकथाम-लगातार बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण सम्पूर्ण जीव जगत के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। वायु, जल, ध्वनि, सांस्कृतिक एवं मानसिक प्रदूषण का मानव संस्कृति एवं विश्व स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। पर्यावरण शिक्षा के द्वारा विद्यार्थियों को प्रदूषण से होने वाले विनाशों से अवगत कराकर उन्हें प्रदूषण रोकने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

(8) सामाजिक एवं चारित्रिक विकास- पर्यावरण शिक्षा प्रकृति के साथ मिल-जुल कर रहने की प्रेरणा, उसमें सहयोग एवं सहकारिता एवं सहष्णुता जैसे गुणों को उत्पन्न करती है। विद्यार्थी पर्यावरण समस्याओं को सुलझाने के लिए सामूहिक प्रयास करते हैं इससे इनमें सामाजिक एवं चारित्रिक गुणों का विकास होता है।

(9) पर्यावरण समस्याओं का समाधान-बढ़ते हुए औद्योगीकरण से विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। वायु में घातक गैसों का सम्मिश्रण, जल में अशुद्धियाँ, भूमि में विभिन्न प्रकार के कीट एवं विषैले तत्वों की वृद्धि हो रही है। रेडियो, टी. वी. प्रोग्राम आदि से उत्पन्न मानसिक एवं सामाजिक विकारों में वृद्धि हो रही है। पर्यावरण शिक्षा द्वारा इन्हें नियन्त्रित किया जा सकता है।

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(10) विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास-पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी विभिन्न समस्याओं से अवगत होकर उनके कारणों, प्रक्रिया एवं समाधान के विषय में अध्ययन करता है। इससे उसकी मानसिकता वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ओर अग्रसर होती है।

(11) राष्ट्र-प्रेम व अन्तर्राष्ट्रीय भावना-आज पर्यावरण से सम्बन्धित समस्या किसी एक राष्ट्र की समस्या नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व की समस्या है। विद्यार्थी इस अन्तर्राष्ट्रीय भावना के साथ ही पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए सम्पूर्ण विश्व का कल्याण किया जाए, कार्य करता है ।

पर्यावरण अध्ययन के द्वारा योग्यताओं का विकास

पर्यावरण अध्ययन प्राथमिक विद्यार्थियों में उनके भौतिक तथा सामाजिक पर्यावरण के प्रति जागरूकता विकसित करता है तथा उनकी समझ का विकास करता है । प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत वे सभी ज्ञात एवं अज्ञात तथ्य आते हैं जो
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उसके जीवन तथा गतििवधियों को प्रभावित करते हैं। भौतिक पर्यावरण का निर्माण सजीव एवं निर्जीव दो प्रकार के तथ्यों से होता है : सजीव पर्यावरण श्रेणी के अन्तर्गत वनस्पति तथा जीव-जन्तु आते हैं जबकि निर्जीव पर्यावरण श्रेणी के अन्तर्गत भूमि, जल और पायु आदि आते हैं।

पर्यावरण के अध्ययन से प्राथमिक स्तर पर निम्न योग्यताओं का विकास किया जा सकता है-

(1) प्राथमिक स्तर के बालकों को प्राकृतिक पर्यावरण से परिचित कराना ।
(2) प्राकृतिक पर्यावरण के प्रति रुचि एवं आकर्षण उत्पन्न करना जिससे उसमें पर्यावरण की जानने की जिज्ञासा उत्पन्न करना ।
(3) बालकों में पर्यावरण शिक्षा द्वारा निरीक्षण एवं अवलोकन की शक्ति का विकास ।
(4) बालकों में स्वच्छता एवं स्वास्थ्य की योग्यता का विकास करना ।
(5) बालकों में वैज्ञानिक भाषा को समझने की योग्यता का विकास करना ।
(6) बालकों में पर्यावरण की उपयोगिता को समझने का विकास करना ।
(7) बालकों में अन्वेषणात्मक एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों का विकास करना ।
(8) बालकों में पर्यावरण के प्रति वैज्ञानिक ढंग से सोचने, अन्वेषण करने तथा निर्णय लेने की क्षमता का विकास करना ।

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पर्यावरण शिक्षा शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण

पर्यावरण शिक्षा शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(1) उद्देश्य बालक की आवश्यकताएँ एवं रुचियों को पूर्ण करते होने चाहिए।
(2) उद्देश्य बालक के ज्ञान तथा अनुभव पर आधारित होने चाहिए।
(3) उद्देश्य उचित अनुक्रम में व्यवस्थित होने चाहिए।
(4) उद्देश्य विद्यार्थियों के मानसिक स्तर तथा परिपक्वता के अनुरूप होने चाहिए।
(5) उद्देश्य विद्यार्थियों की प्रगति का मूल्यांकन करने में सहायक होने चाहिए।
(6) उद्देश्य ऐसे होने चाहिए जो विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन ला सकें।
(7) उद्देश्य सहायक सामग्री के चयन तथा उसके संगठन के लिए सहायक हों।
(8) उद्देश्य प्रजातान्त्रिक शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु निर्धारित किये जायें।
(9) उद्देश्य वर्तमान मूल्यों व आवश्यकताओं से प्रत्यक्षतः सम्बन्धित होने चाहिए।

(1) पाठ्य-वस्तु, जिसका नियोजन अथवा शिक्षण किया जाता है, से सम्बन्धित उद्देश्य ।
(2) व्यवहार, जिस व्यावहारिक रूप में परिवर्तन लाना है, से सम्बन्धित उद्देश्य ।
(3) स्थितियाँ, अधिगम-स्थितियाँ जो इस चरण के अन्तर्गत आती हैं, से सम्बन्धित उद्देश्य ।
(4) स्तर, जिसका निर्धारण विद्यार्थी व प्रारम्भिक व्यवहार करता है, से सम्बन्धित उद्देश्य ।


                              ◆◆◆ निवेदन ◆◆◆

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