रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन | टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारंभिक शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन | टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन | टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियां

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रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय

रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की सन्तान के रूप में 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी विद्यालय की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैण्ड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया लेकिन 1890 में बिना डिग्री प्राप्त किये ही स्वदेश वापस आ गये। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ। उनकी प्रमुख कृतियों में गीतांजलि,गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ,कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख है। टैगोर बचपन से ही बहुत प्रतिभाशाली थे। वे एक महान कवि, कहानीकार,गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबन्धकार तथा चित्रकार थे। उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी। उसके बाद उन्होंने घर का दायित्व सम्भाल लिया।

उन्हें प्रकृति से बहुत लगाव था। उनका मानना था कि विद्यार्थियों को प्राकृतिक वातावरण में ही पढ़ाई करनी चाहिये। वे गुरुदेव के नाम से प्रसिद्ध हो गये। वे अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी लिखी हुई दो रचनाएँ भारत और बांग्लादेश का राष्ट्रगान बर्नी । उनकी अधिकतर रचनाएँ आम आदमी पर केन्द्रित हैं। उनकी रचनाओं में सरलता, अनूठापन एवं दिव्यता है। उन्होंने भारतीय संस्कृति में नई जान फूंकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने अपनी पहली कविता 8 वर्ष की छोटी आयु में ही लिख दी थी। जब उनकी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद होने लगा तब सम्पूर्ण विश्व को उनकी प्रतिभा के बारे में पता चला। इस महान रचनाकार ने 2000 से भी अधिक गीत लिखे।

1919 में हुए जलियाँवाला बाग हत्याकांड की टैगोर ने निन्दा की और इसके विरोध में उन्होंने अपना ‘सर’ का खिताब लौटा दिया। इस पर अंग्रेजी समाचार पत्रों ने टैगोर की बहुत निन्दा की। टैगोर की कविताओं को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा और ये रचनाएँ उन्हें इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने पश्चिमी जगत के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिन्तकों से टैगोर का परिचय कराया। काबुली वाला, मास्टर साहब और पोस्टमास्टर ये उनकी कुछ प्रमुख प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। उनकी रचनाओं के पात्र रचना समाप्त होने तक असाधारण बन जाते हैं। उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में चित्र बनाने प्रारम्भ किये और उनकी कलाकृति भी उत्कृष्ठ र्थी।

1902 से 1907 के मध्य में उनकी पत्नी और 2 सन्तानों की मृत्यु का दर्द इसके बाद की रचनाओं में साफ झलकता है। टैगोर और महात्मा गाँधी के बीच में सदैव वैचारिक मतभेद रहे, इसके बाद भी वे दोनों एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने जीवन की प्रत्येक सच्चाई को सहजता के साथ स्वीकार किया और जीवन के अन्तिम समय तक सक्रिय रहे। 7 अगस्त 1941 को यह महान व्यक्तित्व इस संसार को छोड़कर चला गया।nरवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षाशास्त्री के रूप में अपने स्वयं के प्रयास से प्रकट हुए। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये उन्होंने विश्वभारती की स्थापना की। यह उनके जीवन में अनुभव का आवश्यक परिणाम था।

उनका सम्बन्ध ऐसे परिवार से था जो सभी प्रकार से गतिशील विचारों और कार्यों तथा विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलनों का केन्द्र था। उनके परिवार के सभी सदस्य अच्छी बातों के जानकार थे; जैसे-दर्शन, विज्ञान, संस्कृत, कविता एवं कला, संगीत, नाटक, राष्ट्र निर्माण, समाज सुधार, व्यापार-व्यवसाय और आध्यात्मिक अनुवाद। टैगोर में तीव्र विविधता ग्रहण करने की शक्ति थी, उन्होंने इन बातों को बड़ी सरलता से ग्रहण करके अपना लिया। उपरोक्त गुणों के साथ-साथ टैगोर में और भी ऐसे अनेक गुण थे, जिन्होंने उनको अति महान् शिक्षाशास्त्री बना दिया। उनकी बुद्धि इतनी तेज थी कि वे बड़ी सरलता से अपने कार्य को बना सकते थे। उन्हें विज्ञान तथा मानवशास्त्रों का बहुत ज्ञान था। टैगोर ने भारतीय शिक्षा में एक नये प्रयोग का सूत्रपात किया।

वे भारतीय आदर्शों के समर्थक थे, पाश्चात्य में विचारों के प्रति भी वे जागृत थे। उन्होंने रूसो की प्रकृतिवादी विचारधारा से फ्रॉबेल की किण्डरगार्टन पद्धति तथा जॉन डीवी की शैक्षिक विचारधाराओं में विभिन्न विशेषताओं को देखा किन्तु उनके विचारों को प्रत्येक स्थिति में सत्य नहीं माना, न ही पाश्चात्य शैक्षिक विचारों का अन्धानुकरण किया और न ही अपने विद्यालय को किसी पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली पर आधारित किया। उन्होंने अपने शिक्षा सिद्धान्तों की स्वयं खोज की थी। उनके शैक्षिक विचार उनके स्वानुभव पर आधारित थे।

उनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि वे अपनी बुद्धि के सहारे किसी विषय की तह में बैठ सकते थे। किसी पदार्थ की मूल प्रकृति एवं उसके वास्तविक स्वरूप का पता लगा लेने में वे सिद्धहस्त थे। उनकी बुद्धि का ही यह कमाल था कि जिस समय भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में पश्चिम का अनुकरण करने में सभी लगे हुए थे, उस समय वे आधुनिक भारतीय जीवन के अनुकूल एक शिक्षा प्रणाली की खोज कर रहे थे। जिस समय भारतीय विश्वविद्यालयों में पश्चिमी सिद्धान्तों को दिव्य मानकर आत्मसात् किया जा रहा था, उस समय गुरुदेव शिक्षा के नये सिद्धान्तों का पता लगाने में जुटे हुए थे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन

हम टैगोर के शिक्षा दर्शन के अंतर्गत समझने की कोशिश करेंगे कि टैगोर के अनुसार क्या शैक्षिक सिद्धांत होने चाहिए साथ ही साथ शिक्षा का पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियां,गुरु शिष्य संबंध, विद्यालय का परिवेश किस प्रकार का होना चाहिए,शिक्षक का स्थान आदि सभी बातों पर चर्चा करेंगे ।

टैगोर के शिक्षा दर्शन के सिद्धान्त

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त या आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं-

(1) छात्रों में संगीत, अभिनय एवं चित्रकला की योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिये। (2) छात्रों को भारतीय विचारधारा और भारतीय समाज की पृष्ठभूमि का स्पष्ट ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिये। (3) छात्रों को उत्तम मानसिक भोजन दिया जाना चाहिये, जिससे उनका विकास विचारों के पर्यावरण में हो। (4) छात्रों को नगर की गन्दगी और अनैतिकता से दूर प्रकृति के घनिष्ठ सम्पर्क में रखकर शिक्षा दी जानी चाहिये। (5) शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये और उसे भारत के अतीत एवं भविष्य का पूर्ण ध्यान रखना चाहिये।

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(6) शिक्षा का समुदाय के जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिये। उसे सजीव और गतिशील होने के लिये व्यापक दृष्टिकोण रखना चाहिये। (7) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिये क्योंकि विदेशी भाषा द्वारा अनन्त मूल्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। (8) शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये-व्यक्ति में सभी जन्मजात शक्तियों एवं उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण और सामंजस्यपूर्ण विकास करना। (9) जनसाधारण को शिक्षा देने के लिये देशी प्राथमिक विद्यालयों को पुनः जीवित किया जाना चाहिये।

टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ

टैगोर (Tagore) ने शिक्षा शब्द का अर्थव्यापक अर्थ में लिया है, उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Personality’ में लिखा है-“सर्वोत्तम शिक्षा वही है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।” सम्पूर्ण दृष्टि से टैगोर का अभिप्राय है संसार की चार और अचर, जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव सभी वस्तुएँ। इन वस्तुओं से हमारे जीवन का सामंजस्य तभी हो सकता है जब हमारी समस्त शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित होकर, उच्चतम बिन्दु पर पहुँच जायें, इसी को टैगोर ने पूर्ण मनुष्यत्व कहा है।

शिक्षा का कार्य है, हमें इस स्थिति में पहुँचाना। इस दृष्टिकोण से टैगोर के अनुसार शिक्षा विकास की प्रक्रिया है। वह मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, व्यावसायिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विकास करती है। अतः टैगोर के विचार में शिक्षा का रूप अत्यन्त व्यापक है। शिक्षा को व्यापक अर्थ के अन्तर्गत टैगोर ने शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श को ध्यान रखा है। वह आदर्श है-‘सा विद्या या विमुक्तये’। इस आदर्श के अनुसार शिक्षा मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान देकर उसे जीवन एवं मरण से मुक्ति प्रदान करती है। टैगोर ने शिक्षा के इस प्राचीन आदर्श को भी व्यापक रूप दिया है।

उनका कहना है कि शिक्षा न केवल आवागमन से वरन् आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक दासता से भी मनुष्य को मुक्ति प्रदान करती है। अतः मनुष्य को शिक्षा द्वारा उस ज्ञान का संग्रहण करना चाहिये जो उसके पूर्वजों द्वारा संचित किया जा चुका है, यही सच्ची शिक्षा है। स्वयं टैगोर ने लिखा है-“सच्ची शिक्षा संग्रह किये गये लाभप्रद ज्ञान के प्रत्येक अंग के प्रयोग करने में, उस अंग के वास्तविक स्वरूप को जानने में और जीवन में जीवन के लिये सच्चे आश्रय का निर्माण करने में है।”

टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

यद्यपि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शिक्षा के उद्देश्यों की किसी भी स्थान पर पृथक् रूप से चर्चा नहीं की है तथापि उनकी लेखों में शिक्षा के उद्देश्य से सम्बन्धित उनके विचार प्राप्त होते हैं। उनके अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

1.शारीरिक विकास (Physical development)

टैगोर का विश्वास था कि स्वस्थ मन के लिये स्वस्थ शरीर परम आवश्यक है। अत: उन्होंने इस बात पर बल दिया कि बालक का शारीरिक विकास करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है। उनका कहना था कि शारीरिक विकास के लिये यदि आवश्यक हो तो अध्ययन को कुछ समय के लिये छोड़ देना चाहिये। शारीरिक विकास के लिये टैगोर ने पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में गोता लगाने, फलों को तोड़ने तथा प्रकृति माता के साथ अनेक प्रकार की शैतानियाँ करके खेलकूद तथा व्यायाम को आवश्यक बताते हुए पौष्टिक भोजन पर बल दिया।

2. मानसिक विकास (Mental development)

टैगोर के अनुसार प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्ति को जानने का प्रयास करना ही सच्ची शिक्षा है। इससे कुछ ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता, अपितु जानने की शक्ति का विकास हो जाता है, जितना कक्षा में दिये जाने वाले व्याख्यानों द्वारा असम्भव है। उनका विश्वास था मानसिक विकास तब ही सम्भव है, जब वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त किया जाय। इसके लिये बालक को प्राकृतिक क्रियाएँ करने के लिये अधिक से अधिक अवसर मिलने चाहिये।

3. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास (Moral and spiritual development)

आदर्शवादी होने के नाते टैगोर ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा का उद्देश्य नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास होना चाहिये। अपने लेखो में उन्होंने अनेक नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की है और इसकी प्राप्ति के लिये आन्तरिक शक्ति, आत्मानुशासन, धैर्य एवं ज्ञान को परम आवश्यक बतलाया है।

4.समस्त शक्तियों का विकास (Development of all powers)

टैगोर यह मानते थे कि बालक के अन्दर सभी सुषुप्त शक्तियों का विकास करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। टैगोर एक महान व्यक्तिवादी थे। अत: वे व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास को विशेष महत्व देते थे। वे व्यक्ति को सम्मान तथा स्वतन्त्रता देने के पक्षपाती थे। इसके अतिरिक्त वे शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के मस्तिष्क को स्वतन्त्रता प्रदान करना मानते थे जिससे वे पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त अन्य साधनों द्वारा भी स्वतन्त्र रूप से अपना विकास कर सके।

5. सामाजिक विकास (Social development)

टैगोर व्यक्तिवादी होने के साथ-साथ समाजवादी भी थे। वे जितना महत्व व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व के विकास को देते थे उतना ही महत्व वे समाज तथा सामाजिक सेवा को भी देते थे। वे व्यक्ति की आध्यात्मिकता पूर्णता के लिये उसका सामाजिक विकास आवश्यक मानते थे। अत: शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को एक ऐसे सामाजिक बन्धन में बाँधना चाहते थे जिससे व्यक्ति सामाजिक विकास करने के लिये प्रयत्नशील रहे। अत: उन्होंने अपनी संस्था में सामूहिक कार्यों एवं जन सेवा को अधिक महत्व दिया।

6. राष्ट्रीयता का विकास (Development of nationalism)

रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवादी होने के नाते शिक्षा को राष्ट्रीय जागृति का उनम एवं सफल साधन मानते थे। उन्होंने अपने विचारों, लेखों एवं कविताओं के द्वारा व्यक्तियों को राष्ट्र प्रेम की ओर आकर्षित किया और उन्हें राष्ट्रीय एकता की अनुभूति करायी।

7.अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास (Development of international attitude)

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य बालक में अन्तर्राष्ट्रीय समाज के प्रति चेतना उत्पन्न करना है। वे विश्व में एकता स्थापित करना चाहते थे। अत: वे चाहते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक को अन्तर्राष्ट्रीय समाज के बन्धन में बाँधा जाय जिससे वह अन्तर्राष्ट्रीय समाज के विकास हेतु प्रयास करता रहे।

टैगोर के अनुसार पाठ्यक्रम

रवीन्द्रनाथ टैगोर पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने के पक्षधर थे। उनके अनुसार पाठ्यक्रम को इतना व्यापक होना चाहिये कि उसकी परिधि में बालक के जीवन के सभी पक्षों का विकास हो सके। अत: बालक के समुचित विकास के लिये क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम का निर्माण होना चाहिये। दूसरी बात यह है कि इन्होंने अपनी भाषा एवं संस्कृति के साथ-साथ एव अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की भाषा एवं संस्कृतियों के ज्ञान पर भी बल दिया है। प्रकृति एवं ललित कलाओं के तो ये अनन्य प्रेमी थे। इनको तो इन्होंने पाठ्यक्रम में मुख्य स्थान दिया है।

इन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि सह-पाठ्यचारी क्रियाएँ बालक के विकास में बड़ा योग देती हैं। अत: खेलकूद और अभिनय आदि को पाठ्यक्रम में स्थान देना चाहिये। इनके इस व्यापक दृष्टिकोण के कारण ही इनके द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम बहुत विस्तृत था। इन्होंने प्रारम्भ में अपने शान्ति निकेतन स्थित विद्यालय के लिये जिस क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम को रखा था।
उसका रूप निम्नलिखित था-

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(1) विषय-मातृभाषा, संस्कृत, अंग्रेजी, इतिहास, भूगोल, प्रकृति अध्ययन विज्ञान, कला और संगीत।

(2) उपयोगी वस्तुएँ-इसके अन्तर्गत, बागवानी, कृषि, क्षेत्रीय अध्ययन, सेवा कार्य।


(3) अन्य क्रियाएँ-खेलकूद, नाटक, संगीत नत्य मौलिक रचना, ग्रामोत्थान और समाज इस प्रकार शान्ति निकेतन स्थित इस विद्यालय का विस्तार होता गया।

इसमें राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का महत्व, साहित्य एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाने लगा। आज तो यह विश्वभारती विश्वविद्यालय के रूप में तकनीकी शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया है। इसमें पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च एवं तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था है और विभिन्न स्तरों के लिये विभिन्न पाठ्यक्रम स्थित है। कक्षा एक से 12 तक की पाठ्यचर्या 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना के अनुकूल है। परन्तु साथ ही वह सह-पाठ्यचारी क्रियाएँ और समाज सेवा कार्य अनिवार्य है। स्नातक एवं परास्नातक पाठ्यक्रम क्रियाएँ कुछ अपने प्रकार के हैं।

यहाँ के पाठ्यक्रम की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ देशी-विदेशी का अन्तर नहीं है। इस सन्दर्भ में गुरुदेव की स्पष्ट अभिव्यक्ति थी कि ज्ञान किसी देश के व्यक्तियों के लिये नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के लिये है। यही कारण है कि विश्वभारती विश्वविद्यालय में देश-विदेश की भाषाओं, संस्कृतियों, ज्ञान और तकनीकी की शिक्षा की व्यवस्था है। एक बात यहाँ के पाठ्यक्रम में विशेष है कि वह आज भी कला, संस्कृत, धर्म और ग्रामोत्थान केन्द्रित है। विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ यहाँ देखने को मिलती हैं; जैसे-ड्राइंग, परिभ्रमण, प्रयोगशाला के कार्य-गायन नृत्य, प्रात:कालीन प्रार्थना, स्वशासन-खेलकूद समाज सेवा आदि क्रियाएँ पाठ्यक्रम के अंग की भाँति है। इसीलिये विश्वभारती के पाठ्यक्रम को आज भी अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम के रूप में देखा जाता है।

टैगोर के अनुसार शिक्षण की विधियाँ

टैगोर ने प्रचलित पाठ्यक्रम की भाँति तत्कालीन नीरस शिक्षा पद्धति की कृत्रिमता का विरोध करते हुए इस बात पर बल दिया कि शिक्षा की प्रक्रिया जीवन से पूर्व होनी चाहिये। उसे जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित होना चाहिये। इस सम्बन्ध में विचार था कि बालक का विकास उसकी रुचियों तथा आवेगों के अनुसार होना चाहिये। इसके लिये उसे प्रत्यक्ष स्रोतों से स्वतन्त्र प्रयासों द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान को अर्जित करने के अवसर मिलने परम आवश्यक हैं। अत: टैगोर ने बालक की शिक्षा के लिये निम्नलिखित गतिविधियों को उपयुक्त माना तथा उनका प्रयोग अपनी प्रसिद्ध शैक्षिक संस्था शान्ति निकेतन में किया।

1.भ्रमण के समय पढ़ना (During the working time)

टैगोर का विश्वास था कि कक्षा में पढ़ायी जाने वाली शिक्षा का प्रभाव न तो बालक के मस्तिष्क पर पड़ता है और न बालक के शरीर पर। ऐसी मतिहीन शिक्षा व्यर्थ है। वे कहते थे कि भ्रमण के समय बालकों की मानसिक शक्तियाँ सतर्क रहती हैं। अत: वे अनेक विषयों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर उनके विषय में ज्ञान को सरलता से प्राप्त कर लेते हैं। इस दृष्टि से टैगोर के ही शब्दों में-“भ्रमण के समय पढ़ना शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है।”

2. वाद-विवाद तथा प्रश्नोत्तर विधि (Discussion and question-answer method)

टैगोर का विश्वास था कि वास्तविक शिक्षा केवल पुस्तकों के लेने तक ही सीमित नहीं होती अपितु वह जीवन तथा समाज के अध्ययन पर आधारित होती है। वे कहते थे कि बालकों को प्रश्नों तथा उत्तरों के द्वारा शिक्षा प्रदान करनी चाहिये। यही नहीं उनके समक्ष अनेक प्रकार की समस्याओं को भी रखना चाहिये, जिससे वे इन समस्याओं का हल
वाद-विवाद द्वारा आसानी से निकाल सकें।

3. क्रिया विधि (Activity method)

टैगोर ने क्रिया सिद्धान्त को विशेष महत्व प्रदान किया। उनका विश्वास था कि क्रिया शरीर एवं मस्तिष्क दोनों को शक्ति देती है। इसलिये उन्होंने शान्ति निकेतन में किसी न किसी दस्तकारी को सीखना अनिवार्य कर दिया। टैगोर क्रिया के सिद्धान्त पर इतना विश्वास करते थे कि यदि कोई बालक शिक्षा प्राप्त करते समय भी उनसे पूछे-“क्या मैं दौड़ जाऊँ ” तो वे कहते थे-अवश्य। उनका विश्वास था कि पेड़ पर चढ़ने, फल तोड़ने तथा कूदने-फाँदने से थकावट दूर हो जाती है जिससे बालक ज्ञान प्राप्त करने के लिये अधिक अच्छी दशा में आ जाता है तथा बालक के अनुभवों का महत्व बढ़ जाता है।

4. मातृभाषा द्वारा शिक्षण (Teaching through mother language)

टैगोर मातृभाषा को शिक्षा का सरलतम माध्यम समझते थे। उन्होंने कहा कि विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना अनुचित है। इसके अतिरिक्त टैगोर विश्वबन्धुत्व की भावना के भी समर्थक थे। अतः
उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम में सभी संस्कृतियों को स्थान दिया जाना चाहिये।

5. खेल द्वारा शिक्षण (Teaching through play)

टैगोर का कहना था कि बालकों को शिक्षण खेल द्वारा दिया जाना चाहिये। खेल द्वारा शिक्षण उत्तम होता है क्योंकि खेल में बालक रुचि लेते हैं। आनन्द का अनुभव करते हैं तथा स्वतन्त्रता का भी अनुभव करते हैं। इससे शिक्षण मनोरंजक तथा सरल हो जाता है।

6. स्वानुभव द्वारा शिक्षण (Learning through experience)

टैगोर का विश्वास था कि शिक्षण इस प्रकार किया जाना चाहिये कि जिससे बालक स्वयं के अनुभवों से कुछ सीखें इसीलिये आवश्यक है कि शिक्षा को बालक के जीवन पर केन्द्रित किया जाय। जब शिक्षा जीवन से सम्बन्धित हो जाती है तो उसकी कृत्रिमता समाप्त हो जाती है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षक का स्थान

टैगोर की दृष्टि में शिक्षक ज्ञानी, संयमी एवं बच्चों के प्रति समर्पित होना चाहिये। शिक्षक के विषय में टैगोर के विचार पूर्णतया परम्परावादी थे। गुरुदेव के अनुसार शिक्षा बिना शिक्षक के सम्भव नहीं है। मनुष्य केवल मनुष्य से ही सीख सकता है। अत: शिक्षा व्यवस्था का मुख्य आधार शिक्षक हो है। टैगोर ने शिक्षण विधि की तुलना में शिक्षक को बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए लिखा है, “शिक्षा केवल शिक्षक के द्वारा और शिक्षण विधि द्वारा कदापि नहीं दी जा सकती। अत: शिक्षक को पूर्वाग्रही, संकीर्ण, असहिष्णु, आधीन और अहंकारी नहीं होना चाहिये।”

इस प्रकार टैगोर शिक्षक को शिक्षा व्यवस्था का मुख्य आधार मानते हैं। इस रूप में शिक्षक के कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) शिक्षक एवं बालकों को समान रूप से सांस्कृतिक परम्पराओं का अनुसरण और सत्य की खोज करनी चाहिये। (2) शिक्षक को बालक के जीवन को गति मस्तिष्क को बन्धन से मुक्ति देनी चाहिये। (3) शिक्षक को ऐसे वातावरण का निर्माण करना चाहिये जिससे बालक स्वानुभव द्वारा अधिक सरलता एवं दक्षता से सीख सकें।

(4) शिक्षक का कोई भी कार्य बालक के रचनात्मक शक्ति का दमन करने वाला और उसकी उल्लासवर्धक वृत्ति में बाधक नहीं होना चाहिये। (5) शिक्षक को शिक्षण विधियों में विश्वास न करके जीवन के सिद्धान्तो, मानव आत्मा की पवित्रता और व्यक्तिगत प्रेम में विश्वास करना चाहिये। (6), शिक्षक को बालक को प्रेरणादयी एवं शिक्षाप्रद अनुभव प्रदान करना चाहिये, न कि पुस्तकीय ज्ञान क्योंकि ऐसा करने से वह बालक को ज्ञान अर्जन करने की प्रेरणा नहीं दे सकता।

टैगोर के अनुसार शिक्षार्थी

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बालक की व्यक्तिगत शिक्षा पर विशेष बल दिया है। इसीलिये उनकी अनुभव आधारित शिक्षा क्रिया प्रधान शिक्षा प्रयोगात्मक एवं शिक्षा शिक्षार्थी के सम्पूर्ण विकास में अपना सहयोग करती है। इसके अतिरिक्त शिक्षार्थी को अपना आचरण, नियम-धर्म आदि के अनुकूल रखना चाहिये। गुरुदेव के अनुसार शिक्षार्थी को नित्य प्रात:काल उठना चाहिये। अपने शरीर की सफाई करनी चाहिये। नियमों एवं आदर्शों का पालन करना चाहिये। व्यवहार में विनम्र होना चाहिये। प्रकृति एवं सौन्दर्य का उपासक होना चाहिये और सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक होना चाहिये। इसके साथ-साथ उन्हें असभ्य, दोषपूर्ण और निन्दनीय आचार-विचार से दूर रहना चाहिये। जब तक वे स्वयं से प्रेरित होकर और गुरु में श्रद्धा रखकर सीखने के लिये आगे नहीं बढ़ेगे. तब तक वे कुछ नहीं सीख सकेंगे।

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टैगोर के अनुसार अनुशासन

गुरुदेव अनुशासन को बाह्य व्यवस्था के रूप में नहीं वरन् आन्तरिक भावना के रूप में स्वीकार करते थे। वे दण्ड व्यवस्था के विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि यदि शिक्षक ज्ञानी है, चरित्रवान है तथा उसके विद्यार्थियों के साथ व्यवहार, प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध हैं तो बालक भी स्वयं ही अनुशासन का पालन करेगा। वे स्वशासन की भावना के विकास हेतु खेलकूद- साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन को आवश्यक मानते थे।

टैगोर के अनुसार विद्यालय

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है विद्यालय आत्मबोध का आधार है। वे विद्यालय को एक पवित्र स्थान मानते थे, जहाँ पर बालकों में सद्गुणों का विकास हो सकता है। इस प्रकार टैगोर के अनुसार विद्यालय अत्यन्त आवश्यक है लेकिन ये प्राचीन गुरु आश्रम की भाँति नगर के कोलाहल से दूर सुन्दर एवं प्राकृतिक स्थानों पर स्थित होने चाहिये। वे मानते थे कि शिक्षक एवं विद्याथीद्वारा शिक्षा की साधना शान्त वातावरण में ही सम्भव हो सकती है। अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों को व्यावहारिक रूप टैगोर ने सन 1901 में वोलपुर के निकट सरम्य, शान्त, एकान्त एव प्राकृतिक वातावरण में शान्ति निकेतन विद्यालय की स्थापना करके दिया।

यहां पर कक्षाएं प्रकृति की गोद में, खुली हवा में वक्षों के नीचे लगती थी। यहाँ छात्रों को उल्लासपूर्ण जीवन व्यतीत करने तथा आनन्दमय क्रियाओं एवं अन्वेषणों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। यहाँ शिक्षा का कार्यक्रम सुबह साढ़े चार बजे से रात के साढ़े नौ बजे तक चलता था। शिक्षा के अन्तर्गत स्वास्थ्य से सम्बन्धित क्रियाएँ भी सम्मिलित थीं। आगे चलकर इस संस्था को विश्व भारती के नाम से जाना गया। बाद में इसे विश्वविद्यालय का रूप प्राप्त हो गया और यह विश्वविद्यालय विविध प्रकार की शिक्षा का केन्द्र बन गया। आज इस विश्वविद्यालय में निम्नलिखित विभाग हैं-

(1) पाठ भवन (प्राइमरी एवं माध्यमिक स्कूल)। (2) शिक्षा भवन  (महाविद्यालय)। (3) विद्या भवन (अनुसन्धान एवं उच्च शिक्षा केन्द्र)। (4) विनय भवन (शिक्षण प्रशिक्षण केन्द्र) (5) कला भवन (ललित कला का विद्यालय) । (6) श्री निकेतन (ग्रामोत्थान संस्था)। (7) शिल्प भवन (कुटी उद्योग संस्था)। (8) संगीत भवन (संगीत की शिक्षा के लिये) (9) हिन्दी भवन (हिन्दी की शिक्षा एवं शोध कार्य के लिये)1 (10) चीनी भवन (चीनी एवं भारतीय संस्कृतियों के अध्ययन का विभाग)।

टैगोर की शिक्षा को देन

शिक्षा के क्षेत्र में टैगोर की देन महान् है। संक्षिप्त में हम इसका उल्लेख निम्नलिखित प्रकार कर सकते हैं-

(1) टैगोर ने शिक्षा का अर्थ समृद्ध और पूर्णरूप में लिया। उनका यह दृष्टिकोण प्लेटो एवं स्पेन्सर से कहीं अधिक व्यापक है। जीवन की पूर्णता के लिये टैगोर ने जिस विद्या को निर्मित किया है वह भारतीय और पाश्चात्य दोनों के जीवन को स्पर्श करता है। उसमें अध्यात्म और भौतिक दोनों तत्वों का समावेश है।

(2) टैगोर ने प्रकृति से स्वस्थ एवं निकटवर्ती सम्बन्ध स्थापित किया और बताया कि प्रकृति का प्रभाव रहन-सहन, विवार-व्यवहार, कार्य-कलाप, विषय-वस्तु और विधि में पाया जाता है। दर्शन और वास्तविक जीवन परिस्थिति का समन्वय करके टैगोर ने भारतीय शिक्षा में महान क्रान्ति की है।

(3) सौन्दर्य बोध की शिक्षा और उसका दर्शन टैगोर की एक महत्वपूर्ण देन है। उन्होंने सौन्दर्य बोध की शिक्षा के लिये ललित कलाओं-संगीत, चित्रण, पेंटिंग, नृत्य, कविता, अभिनय को शिक्षा में विशेष रूप में रखा और कला, संगीत एवं काव्य में अपनी एक विशेष प्रणाली का प्रचलन किया।

(4) टैगोर ने प्रकृति में सौन्दर्य और आनन्द शक्ति एवं ओज, स्वतन्त्रता और आत्म प्रेरणा का दर्शन किया तथा उससे मानव जीवन एवं शिक्षा को ओतप्रोत किया।

(5) टैगोर ने भारतीय संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा की नींव डाली। टैगोर ने बताया कि शिक्षा में समस्त सत्यों का एकीकरण होना चाहिये। हमें जीवन के सत्य के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये।

(6) टैगोर कानुसार बालक के विकास में कृत्रिमता नहीं लानी चाहिये और न शीघ्रता करनी चाहिये वान् स्वाभाविक ढंग से उसका विकास होना चाहिये।

(7) पुस्तको एवं पठन विधि की अपेक्षा बालक पर अधिक ध्यान देने के लिये कहा। शिक्षा में स्वतन्त्रता का टैगोर का दृष्टिकोण विशेष महत्वपूर्ण है। इन्होंने कहा कि बालक चाहिये।

(8) टैगोर ने विलासिता एवं फैशन का विरोध करके जीवन में सरलता और सादगी की मानसिक शक्तियों के विकास में और व्यवहार में किसी प्रकार का बन्धन नहीं होना को महत्वपूर्ण स्थान दिया।

(9) टैगोर ने शिक्षा में नवीनता और मौलिकता को महत्व दिया इसके फलस्वरूप प्रचलित रूढ़िवाद का अन्त होकर शिक्षा के मौलिक रूप का सृजन हुआ।

(10) टैगोर ने शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक को अन्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया और कहा कि शिक्षा केवल शिक्षक द्वारा ही दी जा सकती है। मानवतावादी भावना पर विश्व-बन्धुत्व एवं विश्व शिक्षा का प्रयास करने वाले सर्वप्रथम शिक्षाशास्त्री आज के युग में टैगोर को ही प्रस्तुत की।

(11) टैगोर ने फ्रॉबेल, पेस्टॉलाजी, हरबर्ट, ड्यूवी आदि शिक्षाशास्त्रियों की तरह बड़े मौलिक आश्चर्यमय ढंग से अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों का प्रयोग किया।

(12) टैगोर ने ही भारत की भावी शिक्षा व्यवस्था की पीठिका यद्यपि टैगोर के शिक्षा दर्शन पर फ्रॉबेल, रूसो, ड्यूवी आदि महान शिक्षाशास्त्रियों का प्रभाव पड़ा लेकिन अपनी तीव्र बुद्धि और बहुमुखी प्रतिभा के आधार पर इन्होंने अपना स्थान इन पाश्चात्य शिक्षाशास्त्रियों में और भी ऊँचा बना लिया।


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