समय समय पर हमें छोटी कक्षाओं में या बड़ी प्रतियोगी परीक्षाओं में निबंध लिखने को दिए जाते हैं। निबंध हमारे जीवन के विचारों एवं क्रियाकलापों से जुड़े होते है। आज hindiamrit.com आपको निबंध की श्रृंखला में रेल दुर्घटना पर निबंध | मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध | essay on train accident in hindi प्रस्तुत करता है।
Contents
रेल दुर्घटना पर निबंध | मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध | essay on train accident in hindi
इस निबंध के अन्य शीर्षक / नाम
(1) अविस्मरणीय यात्रा पर निबंध
(2) जीवन की सर्वाधिक मार्मिक घटना
(3) रेल दुर्घटना पर निबंध
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रेल दुर्घटना पर निबंध | मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध | essay on train accident in hindi
पहले जान लेते है रेल दुर्घटना पर निबंध | मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध | essay on train accident in hindi पर निबंध की रूपरेखा ।
निबंध की रूपरेखा
(1) प्रस्तावना
(2) समय तथा स्थान
(3) घटना की भयंकरता
(4) अस्पताल का दृश्य
(5) पिताजी का आगमन
(6) उपसंहार
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रेल दुर्घटना पर निबंध | मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध | essay on train accident in hindi
प्रस्तावना
जीवन में प्रतिदिन अनेक घटनाएँ घटती हैं, यह कोई विचित्र बात नहीं। घटनाओं के बीच में ही जीवन की गति है।
परन्तु कभी-कभी कोई ऐसी घटना उपस्थित हो जाती है कि जो अपने दुखद या सुखद प्रभाव को अजीवन हरदय पटल पर अंकित कर देती है।
ऐसी ही तो थी वह मार्मिक अविस्मरणीय घटना जो गत वर्ष 20 जून को मेरे साथ घटित हुई। अब भी जब कभी उसकी स्मृति जाग उठती है शरीर सिहर उठता है, हृदय चीख उठता है और घटना का सारा दृश्य नेत्र-पटल पर अंकित हो जाता है।
समय तथा स्थान
ग्रीष्मावकाश का समय था । भगवान् भुवन भास्कर अपनी पूर्ण प्रचण्डता पर थे।पिताजी के पास दिल्ली जा रहा था।
20 जून प्रातःकाल 8 बजकर 55 मिनट पर सहारनपुर जंकशन से हमारी गाड़ी चली। गाड़ी में खचाखच भीड़ थी। गर्मी से दम घूट रहा था। खिड़कियों पर लोग लटके चले जा रहे थे।
बाहर से अन्दर प्रवेश या अन्दर से बाहर जाना कठिन काम था। खिड़की में से गर्म-गर्म लू के झोंके अन्दर आ रहे थे। शरीर झुलसा जा रहा था। समय था लगभग 12 बजे। गाड़ी ने खतौली स्टेशन पार किया ही था कि अचानक गाड़ी में जोर से धक्का लगा।
एक का सिर दूसरे के सिर से टकरा गया। किसी का सिर डिब्बे की दीवार से टकरा गया। कोई सीट से उछलकर नीचे गिरा, किसी के ऊपर कोई खड़ा हुआ गिर पड़ा। सब उथल-पुथल थे।
ऊपर के तख्तों पर रखे बिस्तर, टूंक आदि सामान धड़ाधड़ नीचे गिरे । अनगिनत यात्री घायल हुए। चारों ओर हाहाकार, चीत्कार, रोदन-बस और कुछ नहीं। कितनी भयानक दुर्घटना थी!
घटना की भयंकरता
घटना भयंकर थी। चारों ओर भयंकर कोहराम मचा था। उस समय था सबके मन में एक ही भाव-
“क्या भरोसा है जिन्दगानी का
आदमी बुलबुला है पानी का”
सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। जब प्राणों पर पड़ती है, मनुष्य का सारा मोह छूट जाता है। वह सब कुछ।खोकर भी अपनी जान बचाना चाहता है।
मेरा सिर खिड़की के शीशे से बुरी तरह टकरा गया था। शीशे के कई टुकड़े हो गये, पर सिर भी सुरक्षित नहीं बचा। बाएँ हाथ पर गिरा धड़ाम से एक ट्रंक। हाथ की हड्डी टूट गयी।
शरीर खून से लथपथ था; और कुछ नहीं सूझा, सहसा खिड़की के रास्ते से बाहर निकल पड़ा। इसके बाद कुछ पता नहीं, मैं कहाँ था, क्या हुआ! पुनः चेतना लौटी, आँखें खुलीं और देखा अपने आस-पास दूर तक भयानक दृश्य ! घायलों के ढेर लगे थे, जो होश में थे, हाय-हाय कर रहे थे।
कुछ बेहोश थे, मानो वे दुःख-मुक्त हो गये थे। मूर्च्छा ही उस समय उनके लिए सुखकर थी। हाहाकार की ध्वनि बढ़ती जा रही थी। कितनी ही माताओं की गोदी के लाल लुटे गये थे।
कितनी वधुओं के सिर से खून की धार बही और उस खून से धुल गया उनके माथे का सिन्दूर भी। कितने ही भाई-बहन बिछुड़ गये और कितनी बहनों का उजड़ गया संसार, कौन बताये! कितने मर गये और कितनों में प्राण-संचार शेष था, यह भी तो पता नहीं।
मेरे शरीर में असह्य वेदना थी, और दृश्य को देखकर शायद हृदय फट जाता, उस समय मूर्छा ने मुझे पुनः एक बार शरण दे दी।
अस्पताल का दृश्य
दूसरे दिन शायद दोपहर का समय था जब मेरी चेतना लौटी। मैने अपने आपको एक विशाल अस्पताल में बिस्तर पर लेटा पाया। पास में कई बिस्तर थे। उन पर भी मेरे सहयाश्री थे।
सब बुरी तरह घायल-किसी का सर फटा था तो किसी की टांग टूटी थी, किसी की कमर पर घाव था । कुछ को तो अभी तक होश ही नहीं आया था । बिस्तर पर लेटे-लेटे पता नहीं मैं क्या-क्या सोच रहा था।
उसी समय डॉक्टर मेरे पास आया । उसने मुझे सान्त्वना दी। मेरा पता, पूछा और मैंने पिता जी का पता उन्हें लिखा दिया। ‘घबराओ नहीं, तुम्हारे पिताजी को तार दिया जायेगा, वे आज ही तुम्हारे पास पहुँच जायेंगे- कहकर डॉक्टर चला गया।
मैं फिर चिन्ता के सागर में उसी तरह डूबने-उत्तरने लगा। शरीर में वेदना अब नहीं थी। जीवन-बच गया-यह भी विश्वास हो गया था। फिर चिन्ता थी-“कहीं हाथ से हाथ न धोना पड़े।”
कई बार नर्स आयी, दवा दी, इंजेक्शन लगाया और पूछा-‘कुछ तकलीफ तो नहीं ?” “तकलीफ तो नहीं, मेरे हाथ का क्या होगा?”- पूछने पर- दी गयी है।
बड़ी नम्रता से कहकर नर्स चली गयी। मन को कुछ शान्ति मिली नर्स के इस उत्तर से। नर्स चली गयी। कुछ ही छड़ों के बाद निद्रा देवी ने मुझे पुनः अपनी गोद में समेट लिया।
पिता जी का आगमन
दीवार पर टॅगी घड़ी ने सात बार टन-टन की आवाज की। अचानक आँखे खुलीं। देखा, मेरे पास चिन्तित मुद्रा में बैठे थे पिताजी।
उन्हें देखते ही मानो मेरे शरीर में कई किलो खून बढ़ गया था। मेरे दःख-दर्द की पूछकर उन्हें भी कुछ शान्ति मिली- ऐसा मुझे आभास हुआ। पिताजी के हाथ में था उसी दिन का अखवार।
विजली की रोशनी में मैंने देखा। अखबार के मुखपृष्ठ पर मोटे अक्षरों में-कुछ नहीं, ठीक हो जायेगा, एक जगह से हड्डी टूटी थीं वह ठीक से जोड़ छपा था-
“खतौली स्टेशन के पास रेल की भयानक दुर्घटना।
सवारी गाड़ी की मालगाड़ी से टक्कर-310 मरे, 512 घायल “
उपसंहार
तीन दिन अस्पताल में रहकर वहाँ से विदा हुआ। तब मैं विलकुल ठीक था। पिताजी के पास दिल्ली आ गया।
इसी बीच माताजी तथा परिवार के सभी लोग अस्पताल में मूझे देखने आये थे, पर आज मुझे घर आया देखकर मानो उन्होंने कोई खोया हुआ खजाना पा लिया हो।
सबके हृदय में आनन्द था । सब प्रसन्न थे। आज उस ममान्तक घटना को लगभग 2 वर्ष बीत गये परन्तु पर हृदय में वह आज भी उसी प्रकार चित्रित है। याद आते ही कॉप उठता हूँ, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद ही इस घटना को कभी भुला सकूँ।
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