बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशासन में सम्मिलित चैप्टर विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत / Principles of School Management in hindi आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।
Contents
विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत / Principles of School Management in hindi
Principles of School Management in hindi / विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत
Tags – विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत,विद्यालय प्रबंधन की अवधारणा से क्या समझते हैं,विद्यालय प्रबंधन की अवधारणा, विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत,Principles of School Management in hindi
विद्यालय प्रबन्धन सिद्धान्त की अवधारणा
स्कूल या विद्यालय प्रबन्धन अपने आपमें एक कला होती है। अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि एक ही विद्यालय को दो प्रधानाध्यापकों को एक-एक वर्ष के लिये दे दिया जाये तो दोनों के कार्य व्यवहार एवं प्रबन्धन में अन्तर देखा जाता है या किसी स्थिति में किसी प्रधानाध्यापक की नियुक्ति ऐसे विद्यालय में की जाती है जिसका प्रबन्धन उचित रूप में नहीं है तो एक कुशल प्रधानाध्यापक द्वारा उस विद्यालय को सर्वोत्तमरूप प्रदान किया जाता है। यही प्रभावपूर्ण विद्यालय,प्रबन्धन का सिद्धान्त है।
जैसे-एक विद्यालय में एक प्रधानाध्यापक एवं एक शिक्षक है, 300 बच्चे हैं। इस स्थिति में एक प्रधानाध्यापक यह कहकर चुप हो जाता है कि सरकारी व्यवस्था में मैं क्या कर सकता हूँ लेकिन जब यही प्रधानाध्यापक ग्रामीण परिवेश के सेवानिवृत्त बेसिक शिक्षकों से अनुरोध करता है कि जब तक सरकार कोई शिक्षक नहीं भेजती तब तक आप विद्या दान करके हमारे विद्यालय को अनुगृहीत करें। यदि उसको सेवानिवृत्त शिक्षक प्राप्त नहीं होते है तो कुछ समाजसेवी पढ़े-लिखे युवाओं को वह विद्यालय में शिक्षण कार्य के लिये प्रेरित कर देता है।
इस प्रकार वह विद्यालय में प्रभावी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की व्यवस्था करता है। इस प्रकार के अनेक संसाधनों का सर्वोत्तम प्रयोग करके विद्यालयी व्यवस्था को सर्वोत्तम बनाना ही प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन कहलाता है। प्रो. एस.के. दुबे लिखते हैं, “प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन का आशय संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग एवं आवश्यकता पूर्ति से होता है जिसमें प्रधानाध्यापक द्वारा उपलब्ध मानवीय, भौतिक एवं प्राकृतिक संसाधनों में समन्वयन स्थापित करते हुए विद्यालय को आदर्श रूप प्रदान किया जाता है जिसमें छात्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध होती है तथा सर्वांगीण विकास सम्भव होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रभावी विद्यालय प्रबन्धन में सिद्धान्तों एवं व्यवहारों का समन्वयन किया जाता है तथा प्रत्येक उपलब्ध संसाधन का सर्वोत्तम उपयोग विद्यालय के लिये किया जाता है।
विद्यालय प्रबन्धन के सिद्धान्त / Principles of Effective School Management
प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन की प्रक्रिया को सम्पन्न करने में कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का अनुकरण करना पड़ता है। इन सिद्धान्तों के आधार पर ही प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन सम्भव हो सकता है। अतः प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित है-
(1) प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध (Democratic management)
(2) ऑकड़ो का वैज्ञानिक संग्रहण (Scientific collection of data)
(3) लक्ष्य निर्धारण एवं योजना (Objective determination and plans)
(4) सावधिक निरीक्षण (Time to time inspection)
(5) लचीलापन (Flexibility)
1. प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध
Democratic Management
प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन का प्रमुख सिद्धान्त एवं आधार प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध माना जाता है। जब विद्यालय प्रबन्धन में सभी का योगदान होता है तो प्रबन्धन की प्रक्रिया सर्वोत्तम रूप में होती है। इस प्रकार के प्रबन्धन से सभी को सन्तुष्टि प्राप्त होती है क्योंकि इस प्रबन्धन को प्रक्रिया में सभी अपना योगदान अनुभव करते हैं, जैसे-प्रधानाध्यापक द्वारा सामुदायिक सहयोग प्राप्त करने के लिये कोई योजना बनायी जाती है। जब इस योजना में विद्यालय के शिक्षक, छात्र, कर्मचारी एवं अभिभावकों को सम्मिलित कर दिया जाता है तथा सभी से आवश्यक विचार-विमर्श किया जाता है तो इस योजना के क्रियान्वयन में किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होती क्योंकि इसके निर्माण में सभी का सहयोग होता है। विद्यालय प्रबन्धन में इस प्रकार की व्यवस्था प्रभावी विद्यालय प्रबन्धन का मार्ग प्रशस्त करती है। प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध की प्रक्रिया को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन के लिये विद्यालय के सभी कर्मचारियों, शिक्षकों, अभिभावकों एवं छात्रों को विद्यालय प्रबन्ध सम्बन्धी तथ्यों से अवगत कराना चाहिये। प्रत्येक योग्य एवं अनुभवी व्यक्ति से सलाह ली जानी चाहिये क्योंकि सभी के विचार-विमर्श के द्वारा ही सारगर्भित एवं उपयोगी निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। अत: सहभागिता के सिद्धान्त का अनुकरण किया जाना चाहिये।
(2) प्रातान्त्रिक प्रबन्धन में समानता के सिद्धान्त का अनुकरण करना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से अपने विचार प्रकट करने के अवसर मिलने चाहिये क्योंकि कभी-कभी कम पढ़े-लिखे अभिभावक एवं कर्मचारी अपने अनुभव के आधार पर विद्यालय प्रबन्धन के सन्दर्भ में उपयोगी विचार प्रस्तुत कर देते हैं। इससे विद्यालय में प्रभावपूर्ण प्रबन्धन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है।
(3) प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन में स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का अनुकरण
करना चाहिये। जब प्रधानाध्यापक द्वारा विद्यालय प्रबन्धन सम्बन्धी योजनाओं का निर्माण किया जाय तो सभी को अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को उस बिन्दु पर स्वतन्त्र रूप से विचार प्रस्तुत करने चाहिये। इससे एक सारगर्भित योजना एव विचार उत्पन्न होते हैं।
(4) प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन के अन्तर्गत निष्पक्षता का सिद्धान्त अपनाना
चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार प्रकट करने तथा उसको उसकी योग्यता के अनुसार कार्य मिलना चाहिये जिससे व्यक्ति उस कार्य को पूर्ण संलग्नता एव तन्मयता के साथ सम्पन्न करे। है तथा व्यवस्था में असन्तोष समाप्त होता है।
(5) कार्य विभाजन का सिद्धान्त प्रजातान्त्रिक निष्पक्षता की स्थिति में प्रत्येक कर्मचारी एवं शिक्षक के मन में सन्तोष की भावना उत्पन्न होती प्रबंध का प्रमुख सिद्धान्त है। कार्य प्रदान करते समय प्रधानाध्यापक को यह देखना चाहिये कि या नहीं। यदि व्यक्ति कार्य के प्रति अयोग्य है तो उसको कार्य नहीं प्रदान करना चाहिये। व्यक्ति विद्यालय प्रबन्धन में जिस व्यक्ति को जो कार्य दिया जा रहा है वह उस कार्य को पूर्ण कर सकेगा की योग्यता एव दायित्व निर्वहन की क्षमता के अनुसार ही उसे कार्य प्रदान किया जाना चाहिये।
(6) प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन में योग्यता के साथ-साथ व्यक्ति की रुचि के बारे में भी ध्यान रखा जाना चाहिये जैसे-एक शिक्षक की रुचि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संचालन में पूर्ण रुप से दिखायी देती है तथा उसमें पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संचालन की योग्यता भी है तो उसको पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संचालन एवं प्रबन्धन का कार्य देना चाहिये। इस प्रकार की व्यवस्था प्रत्येक कार्य के प्रबन्धन में करनी चाहिये।
(7) प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन में टकराव की स्थिति को रोकने के लिये सदैव समन्वयन के सिद्धान्त का अनुकरण करना चाहिये। मानवीय संसाधनों में स्वहित के स्थान पर विद्यालय हित की भावना होनी चाहिये। यदि एक शिक्षक को सौंपा गया कार्य किसी कारण से उचित रूप में सम्पन्न नहीं हो रहा है तो दूसरे शिक्षक को उसकी सहायता करके कार्य योजना को सफल बनाना चाहिये। इस प्रकार की भावना समन्वयन की स्थिति उत्पन्न करने में सहायता करती है।
(8) प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन में अभिभावकों का सहयोग भी प्राप्त करना चाहिये क्योंकि जिन अभिभावकों के बालक विद्यालय में अध्ययन करते हैं उनका पूर्ण ध्यान विद्यालय की ओर ही होगा तथा वे विद्यालय हित में प्रधानाध्यापक का सहयोग शरीर एवं धन दोनों से ही करने के लिये तत्पर रहेंगे। इससे प्रबन्धन प्रक्रिया प्रभावी रूप में सम्पन्न होगी।
(9) प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन की स्थिति में अनेक प्रकार के प्रबन्धन सम्बन्धी अनुसन्धानों के निष्कर्षों को उचित स्थान देना चाहिये जिससे नवीन प्रयोगों एवं अनुसन्धानों के माध्यम से प्रबन्धन का स्वरूप प्रजातान्त्रिक हो सके। इसमें मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं अनुसन्धानों का भी ध्यान रखकर प्रबन्धन सम्बन्धी योजना बनायी जानी चाहिये।
(10) अभिभावकों के साथ-साथ सामुदायिक सहयोग की व्यवस्था भी प्रजातान्त्रिक प्रबन्धन में आवश्यक होती है। इसमें प्रधानाध्यापक को समाज के प्रतिष्ठित, धनवान एवं समाज सेवक की भावना से युक्त व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करना चाहिये तथा उनके साथ विचार-विमर्श करना चाहिये। इससे विद्यालय प्रबन्धन को सर्वोत्तम रूप प्राप्त हो सकेगा।
उपरोक्त बिन्दुओं का अनुकरण करने पर विद्यालय प्रबन्धन का स्वरूप प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के रूप में सम्पन्न होगा तथा विद्यालय का प्रत्येक सदस्य विद्यालयी व्यवस्था से पूर्ण सन्तुष्ट हो सकेगा।
2. आँकड़ों का वैज्ञानिक संग्रहण
Scientific Collection of Data
सामान्य रूप से वर्तमान समय में आँकड़ों का वैज्ञानिक संग्रहण उस व्यवस्था से होती है जिसमें आँकड़ों की उपलब्धता प्रत्येक साय प्रत्येक स्थान पर होती है। वर्तमान समय में अनेक विद्यालय अपनी सफलता सम्बन्धी आँकड़ों को नैट पर डाल देते हैं। इससे उन आँकड़ों की उपलब्धता प्रत्येक व्यक्ति के लिये होती है। सामान्य रूप से इन आंकड़ों को डिजिटल आकर भी कहते हैं। अनेक अवसरों पर सरकारी निर्देश के अनुसार सरकारी योजनाओं की सफलता के लिये आँकड़ों को नैट पर डाल दिया जाता है। इन आंकड़ों के आधार पर विद्यालयों के संग्रहण की जानकारी हो जाती है। आंकड़ों के वैज्ञानिक संग्रहण के स्वरूप को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1)डिजिटल आँकड़े के स्वरूप का आशय कम्प्यूटर एवं इण्टरनेट पर उपलब्ध आंकड़ों से होता है। सामान्यतः जब विद्यालय प्रबन्ध सम्बन्धी आँकड़ों का वर्णन देखना होता है तो कोई भी व्यक्ति किसी भी विद्यालय के आंकड़ों को नेट के माध्यम से देख सकता है। इन आंकड़ों के माध्यम से विद्यालय की प्रत्येक क्षेत्र से सम्बन्धित प्रगति को देखा जा सकता है। इस प्रकार आँकडों के वैज्ञानिक प्रबन्धन से प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन का मार्ग प्रशस्त होता है।
(2) आंकड़ों के वैज्ञानिक प्रवन्ध के अन्तर्गत आँकड़ों में विश्वसनीयता होनी चाहिये क्योंकि विश्वसनीय ऑकड़ों के आधार पर ही विश्वस्तरीय निष्कर्थ प्राप्त किये जा सकते हैं, जैसे-छात्रों के अधिगम स्तर में स्तर में वृद्धि सम्बन्धित आँकड़े यदि विश्वसनीय हैं तो प्रत्येक विद्यालय के प्रधानाध्यापक द्वारा उन्हीं शिक्षण अधिगम गतिविधियों का उपयोग किया जायेगा जो छात्रों की वृद्धि सम्बन्धी आंकड़ों को प्रदर्शित करती हैं। इससे दूसरे विद्यालय के छात्रों का अधिगम स्तर भी उच्च हो सकेगा।
(3) आँकड़ों के वैज्ञानिक प्रबन्ध में वैधता का गुण भी पाया जाता है अर्थात् जो भी आँकड़े प्रस्तुत किये जाते हैं वह पूर्ण रूप से वैध होते हैं, उनमें कल्पना का अभाव होता है; जैसे- एक विद्यालय के प्रधानाध्यापक द्वारा विद्यालय प्रबन्ध में शिक्षक, कर्मचारी, अभिभावक एवं छात्रों को सम्मिलित किया जाता है तो उसके विद्यालय प्रबन्ध में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है क्योंकि ये आँकड़े वास्तविक रूप से वैध होते हैं। इसके विपरीत मात्र आँकड़े प्रस्तुत करने में वैधता का अभाव होता है। दूसरे शब्दों में आँकड़ों को वैध एवं वास्तविक परिणामों से सम्बन्धित करना चाहिये
(4) आंकड़ों के संग्रहण में प्रमुख रूप से दो प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिये। प्रथम अभिलेखों में आँकड़ों को संग्रहीत करना चाहिये। इसके पश्चात् आँकड़ों को कम्प्यूटर की, हार्ड डिस्क में संग्रहीत करना चाहिये। इसके साथ-साथ उन आँकड़ों को इण्टरनेट पर भी डाल देना चाहिये। इस प्रकार आँकड़ों की उपलब्धता प्रत्येक स्तर पर होती है। इस प्रकार के आँकड़े वैज्ञानिक प्रबन्धन के अन्तर्गत आते हैं।
(5) किसी भी विद्यालय के प्रधानाध्यापक को आँकड़ों को संग्रहीत करने में इण्टरनेट का उपयोग करना चाहिये। इण्टरनेट में आँकड़ों के प्रस्तुतीकरण के विविध रूप देखे जा सकते हैं। प्रधानाध्यापक द्वारा आँकड़ों के प्रस्तुतीकरण के जिस रूप को सर्वोत्तम एवं उपयोगी माना जाता है उस रूप को ही स्वीकार करना चाहिये। इससे प्रबन्धन में गुणवत्ता उत्पन्न होती है।
(6) विद्यालय प्रबन्धन में विविध प्रकार के विषय होते हैं। इन विषयों से सम्बन्धित आँकड़ों का प्रबन्धन पृथक्-पृथक् रूप में करना चाहिये। दूसरे शब्दों में आँकड़ों के वैज्ञानिक प्रबन्ध के अनुसार आँकड़ों का वर्गीकरण करना चाहिये। वर्गीकरण के आधार पर प्रधानाध्यापक तथा विद्यालय प्रबन्ध से सम्बद्ध प्रत्येक व्यक्ति उन आँकड़ों का उपयोग कर सकता है।
(7) आँकड़ों के वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत आँकड़ों के विश्लेषण करने की योग्यता प्रत्येक उस व्यक्ति में होनी चाहिये जो विद्यालय प्रबन्ध से सम्बन्धित हो, आँकड़ों के विश्लेषण करने पर ही प्रबन्ध सम्बन्धी सारगर्भित तत्त्वों की प्राप्ति सम्भव होती है। इससे विद्यालय प्रबन्धन का स्वरूप प्रभावी रूप में सम्पत्र होता है।
(8) ऑकड़ों के वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत आँकड़ों का प्रस्तुतीकरण भी महत्त्वपूर्ण होता है। इसके अन्तर्गत विद्यालय के परीक्षा परिणाम सम्बन्धी ऑकई.आय-व्यय सम्बन्धी ऑकड़े तथा प्रबन्धन सम्बन्धी आंकड़ों को सारणीभत एव सरल रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें अनेक प्रकार के कॉलमों का निर्माण करके प्रस्तुतीकरण किया जाता है। इससे सभी प्रकार की सूचनाएँ सरल एवं बोधगम्य रूप में
प्राप्त हो जाती ।
(9) ऑकड़ों के वैज्ञानिक प्रबन्धन में सारणीयन की व्यवस्था होनी चाहिये। इसमें विद्यालय प्रबन्धन सम्बन्धी ऑकड़ों को सारणी बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। सारणी में आँकड़ों को घटते हुए क्रम में तथा बढ़ते हुए क्रम में प्रस्तुत किया जाता है। कुछ विशेष आँकड़ों को रेखांकित कर दिया जाता है। इस प्रकार सारणीयन से ऑकड़े क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आँकड़ों का वैज्ञानिक प्रबन्धन ही एक विद्यालय प्रबन्धन सम्बन्धी व्यवस्था को प्रभावपूर्ण बनाता है क्योंकि आँकड़ों के माध्यम से ही विद्यालय की सम्पूर्ण छवि दृष्टिगोचर हो जाती है जो कि विद्यालय प्रबन्धन को नवीन दिशा प्रदान करती है। इससे विद्यालय प्रबन्ध सर्वोत्तम रूप में सम्पन्न होता है।
3. लक्ष्य निर्धारण एवं योजना
Objectives Assessment and Planning
प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्धन का प्रमुख सिद्धान्त लक्ष्य निर्धारण एवं योजना होती है। जैसे- एक विद्यालय में एक अतिरिक्त कक्ष निर्माण कराने का लक्ष्य रखा जाता है। इस लक्ष्य को पूर्ण करने के लिये योजना का निर्माण किया जाना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में जब लक्ष्य निर्धारित किया जाय तो उसे पूर्ण करने के लिये योजना भी बनायी जाय। कक्ष निर्माण के लिये धन, मानवीय संसाधन एवं सामग्री आदि की योजना बनायी जाय जिससे कक्ष निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। योजना के प्रभावपूर्ण एवं उपयोगी होने पर ही लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। लक्ष्य निर्धारण एवं योजना सम्बन्धी सिद्धान्त को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) लक्ष्य निर्धारण एवं योजना सिद्धान्त की अनुपालना में सर्वप्रथम संसाधनों की उपलब्धता पर विचार करना चाहिये क्योंकि लक्ष्य निर्धारण करते समय या योजना बनाते समय संसाधनों को देखने से लक्ष्य एवं योजना दोनों के मध्य समन्वयन स्थापित होता है। इससे लक्ष्य की पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती तथा विद्यालय प्रबन्धन सार्थक रूप में सम्पन्न होता है।
(2) किसी भी लक्ष्य का निर्धारण करने से पूर्व उसके लिये संसाधनों के एकत्रीकरण पूर भी विचार करना चाहिये क्योंकि किसी भी लक्ष्य पूर्ति के लिये संसाधनों की उपलब्धता एवं एकत्रीकरण आवश्यक है। योजनाओं की पूर्ति पर इस प्रकार के संसाधनों के एकत्रीकरण को आवश्यकता होती है। संसाधनों का एकत्रीकरण ही योजना को सफल बनाता है।
(3) लक्ष्य का निर्धारण करते समय आवश्यकता को अधिक ध्यान में रखना चाहिये, जैसे-गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिये जिन-जिन व्यवस्थाओं को आवश्यकता होती है उनमेंक्रमबद्ध रूप से आवश्यकताओं का चुनाव करना चाहिये। इससे विद्यालय प्रबन्धन में प्रभावशीलता उत्पन्न होती है। प्रथम विद्यालय भवन, द्वितीय शिक्षण अधिगम प्रक्रिया एवं तृतीय विद्यालय साज-सज्जा आदि पर ध्यान देना चाहिये।
(4) लक्ष्यों का स्पष्ट वर्णन भी लिखित रूप में होना चाहिये। इसमें प्रत्येक पक्ष पर स्पष्ट विचार होने चाहिये जैसे-शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिये शिक्षण अधिगम सामग्री के प्रयोग, नवीन शिक्षण विधियों के प्रयोग एवं अधिगम आधारित व्यवस्था आदि के बारे में स्पष्ट उल्लेख होने से योजना बनाने में सरलता होती है। इस प्रकार प्रत्येक लक्ष्य का साथ उसकी योजना का वर्णन स्पष्ट रूप से हो जाता है।
(5) लक्ष्य निर्धारण के साथ ही योजना को प्रस्तुत करना चाहिये जैसे-शत प्रतिशत नामाकन का लक्ष्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाता है तो उसके लिये स्कूल चलो अभियान सम्बन्धी रैली एवं अभिभावकों से सम्पर्क आदि कार्यक्रम निश्चित कर दिये जाने चाहिये। इससे लक्ष्य को सरलता से प्राप्त किया जा सकता है।
(6) योजना निर्माण के साथ साथ उसके क्रियान्वयन की प्रभावशीलता भी सर्वोत्तम रूप में होनी चाहिये, जैसे-नामांकन मेला आयोजित करते समय प्रशासनिक अधिकारी, ग्राम प्रधान विकास अधिकारी, शिक्षा अधिकारी, अभिभावक एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों को एक मंच पर एकत्रित कर देना चाहिये। इससे सभी को यह अनुभव हो जाय कि विद्यालय में बालकों का नामांकन परमावश्यक है। इसी प्रकार प्रत्येक योजना का क्रियान्वयन होना चाहिये।
(7) लक्ष्य निर्धारण एवं योजना निर्माण में मानवीय संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग होना चाहिये; जैसे-विद्यालय प्रबन्धन सम्बन्धी योजना में प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता एवं रुचि के अनुसार कार्य मिलता है तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता का सर्वोत्तम प्रदर्शन करता है। इस प्रकार प्रत्येक पक्ष में सर्वोत्तम व्यवस्था एवं प्रबन्धन सम्पन्न होता है।
(8) लक्ष्य निर्धारण एवं योजना निर्माण में वित्तीय संसाधनों के बारे में पूर्ण विचार करना चाहिये क्योंकि वर्तमान समय में लक्ष्य की पूर्ति हेतु जिन योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है उनमें छात्र की आवश्यकता होती है। इस प्रकार विद्यालय के पास उपलब्ध वित्तीय स्रोत तथा उत्पन्न किये जाने वाले स्रोतों को ध्यान में रखकर लक्ष्य निर्धारण एवं योजना सिद्धान्त की अनुपालना करनी चाहिये। इससे विद्यालय प्रबन्ध प्रभावी रूप में सम्पन्न होगा।
(9) विद्यालय के लिये लक्ष्य निर्धारण एवं योजना के अन्तर्गत उपलब्ध भौतिक संसाधों को भी ध्यान में रखा जाय; जैसे-विद्यालय के पास खेल का मैदान नहीं है। यदि विद्यालय के पास सरकारी जमीन पड़ी हुई है तो विद्यालय के प्रधानाध्यापक द्वारा छात्रों के लिये उस जमीन का उपयोग खेल के मैदान के रूप में किया जा सकता है। इसके लिये उसको सक्षम अधिकारी से स्वीकृति अवश्य प्राप्त करनी चाहिये। इस प्रकार भौतिक संसाधनों का सर्वोच्चम उपयोग करके विद्यालय प्रबन्धन की प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जा सकता है।
(10)लक्ष्य निर्धारण एवं योजना सिद्धान्त के अन्तर्गत समुदाय का सहयोग अवश्य लेना चाहिये। जब विद्यालय प्रधानाध्यापक द्वारा समुदाय के प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं अभिभावक को लक्ष्य एवं योजना निर्धारण में सम्मिलित किया जाये तो समुदाय के सभी व्यक्तियों में विद्यालय के प्रति उत्तरदायित्व का बोध होगा तथा वे योजना के क्रियान्वयन हेतु अपना पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकेंगे। इससे विद्यालयी प्रबन्धन प्रभावी रूप में सम्पन्न होगा।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि लक्ष्य निर्धारण एवं योजना का सिद्धान्त प्रभावी विद्यालय प्रबन्धन का प्रमुख आधारभूत सिद्धान्त है। इसके द्वारा ही एक विद्यालय को आदर्श विद्यालय बनाया जा सकता है तथा छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध करायी जा सकती है।
4.सावधिक निरीक्षण
Inspection with Time Period
भावधिक निरीक्षण का आशय समय-समय पर विद्यालय प्रबन्धन सम्बन्धी गतिविधियोंनकी समीक्षा, पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण आदि क्रियाओं से है। दूसरे शब्दो में सावधिक निरीक्षण के अनुसार विद्यालय प्रबन्धन सम्बन्धी कार्याका मूल्यांकन किया जाता है। आवश्यकता के अनुसार सुझाव दिये जाते है तथा उसमें परिवर्तन किये जाते हैं। इससे विद्यालय प्रवन्य प्रभावशीलता उत्पन्न होती है। सावधिक निरीक्षण की प्रक्रिया को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) सावधिक निरीक्षण के अन्तर्गत एक योग्य निरीक्षणदल का गठन किया जाना आवश्यक होता है। इस दल में प्रधानाध्यापक के अतिरिक्त शिक्षाशास्त्री शिक्षा अधिकारी एवं मनोवैज्ञानिकों को सम्मिलित किया जाना चाहिये जिससे निरीक्षण करते समय विद्यालयी व्यवस्था के प्रत्येक पर पर विचार किया जा सके तथा विद्यालय प्रबन्धन प्रभावी रूप में सम्पन्न हो ।
(2) निरीक्षण की प्रक्रिया का उद्देश्य सुधारात्मक होना चाहिये। प्रत्येक निरीक्षणकर्ता को यह ध्यान रखना चाहिये कि विद्यालय प्रबन्धन की प्रक्रिया में सुधार ही उनका प्रमुख उद्देश्य है। इस तथ्य को ध्यान रखकर उसे अपने प्रबन्धन सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करने चाहिये। इससे विद्यालय प्रबन्धन प्रभावी रूप में सम्पन्न होगा तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध होगी।
(3) निरीक्षण के समय सकारात्मक दृष्टिकोण का होना परमावश्यक है क्योंकि मात्र कमी निकालता हो निरीक्षण का उद्देश्य नहीं है वरन् उसका समाधान भी निरीक्षणकर्ताओं को प्रस्तुत करना चाहिये जिससे विद्यालय प्रबन्धन में लगे व्यक्ति उनके सुझाव के अनुसार ही कार्य कर सकें। सकारात्मक दृष्टिकोण से ही विद्यालय प्रबन्धन में प्रभावशीलता उत्पन्न होती है।
(4) निरीक्षण कार्य करते समय उपलब्ध संसाधनों पर भी विचार करना चाहिये, जैसे-निरीक्षणकर्ता द्वारा ऐसे प्रस्तुत किये जाते हैं जिनके लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है या अधिक मानवीय संसाधनों की आवश्यकता होती है। इन सभी के लिये विद्यालयो व्यवस्था सक्षम नहीं होती तो इस प्रकार के निरीक्षण एवं सुझावों का कोई लाभ नहीं होता।
(5) निरीक्षणकर्ताओं द्वारा विद्यालय प्रबन्ध सम्बन्धी प्रत्येक योजना का निरीक्षण करना चाहिये क्योंकि सभी प्रकार की योजनाएँ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से विद्यालय प्रबन्धन से सम्बद्ध होती है। निरीक्षण के समय जिस विद्यालयी योजना का निरीक्षण किया जा रहा है उस योजना से सम्बन्धित विशेषज्ञ भी साथ होना चाहिये जिससे निरीक्षण उपयोगी रूप में हो सके।
(6) विद्यालयी व्यवस्था में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इसलिये निरीक्षण प्रणाली में इसको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिये। इसका निरीक्षण साप्ताहिक या पाक्षिक होना चाहिये। जब शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रभावी रूप में चल रही है तब उसका निरीक्षण मासिक भी किया जा सकता है। इसमें आवश्यक अनुसन्धानों के परिणामों को भी समय-समय पर सम्मिलित करना चाहिये।
(7) निरीक्षणकर्ताओं द्वारा विद्यालय भवन,खेल का मैदान एवं भौतिक सुविधाओं का निरीक्षण भी समय-समय पर करना चाहिये। विद्यालय उद्यान एवं रखरखाव को भी इसमें सम्मिलित किया जाना चाहिये। इससे विद्यालय का वातावरण पूर्णत: शैक्षिक होता है तथा विद्यालय प्रबन्धन प्रभावी रूप में सम्पन्न होता है।
(8) पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के अन्तर्गत भी समय-समय पर निरीक्षण की आवश्यकता होती है। पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ वर्तमान समय में समग्र विकास का मार्ग प्रशस्त करती हैं। पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संचालन के लिये आवश्यक व्यवस्थाओं का निरीक्षण किया जाना चाहिये। इसके लिये छात्रों को उचित प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाना चाहिये। जिस विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ सर्वोत्तम रूप में सम्पत्र होती हैं वह विद्यालय आदर्श विद्यालय माना जाता है।
(9) निरीक्षणकर्ताओं द्वारा समय समय पर पाठ्य-पुस्तकों की समीक्षा करनी चाहिये। पाठ्य पुस्तकों में समय-समय पर आवश्यक परिवर्तन
सम्बन्धी व्यवस्था निरीक्षण के माध्यम से ही सम्भव होती है। इसमें नवीन विषयों का समावेश सम्भव करने के लिये अनुसन्धानों की व्यवस्था करनी चाहिये। इन अनुसन्धानों के निष्कर्षों के आधार पर ही पाठ्य-पुस्तकों की रचना करनी चाहिये। पाठ्य पुस्तक सुधार सम्बन्धी सुझाव भी प्रस्तुत करने चाहिये।
(10) परीक्षा प्रणाली का निरीक्षण भी समय-समय पर करना चाहिये
क्योंकि परीक्षा प्रणाली का आधुनिक स्वरूप ही प्रभावी विद्यालय प्रबन्धन को जन्म देता है। वर्तमान समय में छात्रों को निबन्धात्मक परीक्षा के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षा का भी ज्ञान कराया जाता है। वर्तमान समय में विविध प्रकार की अन्य परीक्षाओं का भी समावेश विद्यालयी परीक्षा प्रणाली में किया जाता है। इससे आधुनिक सन्दर्भ में छात्र का सर्वोत्तम मूल्यांकन सम्भव होता है।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि निरीक्षण सम्बन्धी प्रक्रिया विद्यालयी प्रबन्धन को प्रभावी बनाने के लिये आवश्यक है क्योंकि इसके माध्यम से ही विद्यालयी प्रबन्धन व्यवस्था की त्रुटियों के बारे में देखा जा सकता है तथा उसमें आवश्यकता के अनुसार सुधार किया जा सकता है।
5. लचीलापन
Flexibility
विद्यालय प्रबन्धन की प्रभावशीलता के लिये विद्यालयी व्यवस्था में लचीलापन होना भी आवश्यक है। अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि लक्ष्य निर्धारण करते समय परिस्थितियाँ कुछ और होती है तथा बाद मैं परिवर्तित हो जाती है तो उस लक्ष्य सम्बन्धी योजना में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है।
जैसे-एक विद्यालय में 4 अतिरिक्त शिक्षकों की नियुक्ति का लक्ष्य निर्धारित किया गया या किसी कारणवश एक भी शिक्षक नियुक्त नहीं हो पाया तो उसके लिये सामुदायिक सहयोग लेकर कार्य चलाया जा सकता है या उपलब्ध शिक्षकों को प्रशिक्षित करके उनसे ही कार्य कराया जा सकता है। सेवा निवृत्त अध्यापकों का सहयोग भी लिया जा सकता है। इस प्रकार के अनेक विकल्पों को अपनाया जा सकता है। इस प्रकार की परिवर्तनशीलता की स्थिति लोचशीलता के नाम से जानी जाती है। विद्यालयी प्रबन्धन व्यवस्था में इसका होना आवश्यक माना जाता है। विद्यालय प्रबन्धन के लोचशीलता सिद्धान्त को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) प्रभावी विद्यालय प्रबन्धन की व्यवस्था में योजनाओं में समयानुसार परिवर्तन करना आवश्यक माना जाता है, जैसे-एक विद्यालय के लिये 10 रैकेट एवं 10 बैट खरीदने की योजना बनायी गयी। बाजार में तेजी आने के कारण रैकेट एवं बैट दोनों की कीमतें बढ़ गयी। विद्यालयी व्यवस्था में धन सीमित था। इस स्थिति में रैकेट एवं बैट की संख्या कम की जा सकती है।
(2) अनेक अवसरों पर यह देखा जाता है कि किसी अनुसन्धान के निष्कर्ष के आने पर हमको विद्यालय की योजना में परिवर्तन करना पड़ता है, जैसे-एक विद्यालय में व्याख्यान विधि से शिक्षण का योजना सत्र के लिये निर्धारित की गयी। इसके बाद करके सीखने की शिक्षण विधि को विज्ञान द्वारा अधिक मान्यता प्रदान की गयी तो इस स्थिति में करके सीखने की विधि को ही प्राथमिकता प्रदान करते हुए स्वीकार कर लेना चाहिये।
(3) उद्देश्यों के आधार पर भी विद्यालय प्रबन्धन व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहिये जैसे-वर्तमान समय में छात्रों का सर्वांगीण विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। इस आधार पर खेलकूद एवं पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को उतना ही महत्त्व दिया जाता है जितना कि अन्य विषयों को। इस प्रकार के परिवर्तन प्रबन्धन प्रक्रिया में समय-समय पर आवश्यकता के अनुरूप करने चाहिये ।
(4) अनेक अवसरों पर समय की मांग के अनुरूप भी विद्यालयी व्यवस्था में परिवर्तन किये जाते है जैसे-वर्तमान समय में अंग्रेजी की मांग बढ़ने के कारण प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा तीन से ही अंग्रेजी प्रारम्भ कर दी गयी है जबकि भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। इस प्रकार के अनेक परिवर्तन विद्यालयी व्यवस्था में समयानुसार किये जाने चाहिये।
(5) सामाजिक व्यवस्था में समय में विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था समाज की प्रमुख माँग है। इसलिये सरकारी विद्यालयों में शौचालय, बिजली, पानी, प्रयोगशाला एवं कम्प्यूटर आदि की व्यवस्था सरकार द्वारा व्यापक रूप से करने के प्रयास किये जा रहे हैं ।
(6) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में प्राचीनकाल में शिक्षक को अधिक महत्त्व दिया जाता था परन्तु वर्तमान समय में छात्रों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। छात्र को केन्द्र बिन्दु मानकर ही सम्पूर्ण विद्यालयी व्यवस्था को संचालित किया जाता है। शिक्षक की भूमिका मात्र एक सहयोगी के रूप में होती है जो कि छात्र की गतिविधियों में सहायता करता है।
(7) प्राचीनकाल में शिक्षक की भूमिका एक नियन्त्रक एवं अनुशासक के रूप में होती थी। वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका सुविधादाता के रूप में होती है। वह छात्र की प्रत्येक गतिविधि को सम्पन्न करने में उसकी सहायता करने के लिये तत्पर रहता है। छात्र को शैक्षिक एवं अशैक्षिक सहायता करना शिक्षक का पूर्ण दायित्व माना जाता है। इस प्रकार शिक्षक की भूमिका में वर्तमान समय में व्यापक परिवर्तन हो गया है।
(8) वर्तमान समय में प्रबन्धन व्यवस्था का दायित्व भी अभिभावकों को दे दिया गया है क्योंकि जिस अभिभावक का बालक जिस विद्यालय में अध्ययन करता है वह अभिभावक भी उस विद्यालय में सर्वाधिक योगदान देना चाहेगा। इस आधार पर सरकार द्वारा अपना हस्तक्षेप कम करते हुए विद्यालय प्रबन्धन समिति को ही प्रबन्धन की दायित्व प्रदान किया गया है। इसमें समिति का अध्यक्ष भी अभिभावक होता है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि विविध प्रकार के सिद्धान्तों का अनुकरण करके ही विद्यालयी प्रबन्धन व्यवस्था को प्रभावी रूप प्रदान किया जा सकता है। विद्यालय की प्रबन्ध व्यवस्था को सर्वोत्तम बनाने के लिये इन सिद्धान्तों का अनुकरण करना आवश्यक माना जाता है। इससे विद्यालय की छवि सर्वोत्तम रूप में विकसित होगी।
आपके लिए महत्वपूर्ण लिंक
टेट / सुपरटेट सम्पूर्ण हिंदी कोर्स
टेट / सुपरटेट सम्पूर्ण बाल मनोविज्ञान कोर्स
Final word
आपको यह टॉपिक कैसा लगा हमे कॉमेंट करके जरूर बताइए । और इस टॉपिक विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत / Principles of Effective School Management in hindi को अपने मित्रों के साथ शेयर भी कीजिये ।
Tags – विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत,विद्यालय प्रबंधन की अवधारणा से क्या समझते हैं,विद्यालय प्रबंधन की अवधारणा,प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत,Principles of Effective School Management in hindi,विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत,विद्यालय प्रबंधन की अवधारणा से क्या समझते हैं,विद्यालय प्रबंधन की अवधारणा,प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबंधन के सिद्धांत,Principles of Effective School Management in hindi,