शिक्षा के उद्देश्य | aims of education in hindi | शिक्षा के क्या उद्देश्य हैं

बीटीसी एवं सुपरटेट की परीक्षा में शामिल शिक्षण कौशल के विषय वर्तमान भारतीय समाज एवं प्रारंभिक शिक्षा में सम्मिलित चैप्टर शिक्षा के उद्देश्य | aims of education in hindi | शिक्षा के क्या उद्देश्य हैं आज हमारी वेबसाइट hindiamrit.com का टॉपिक हैं।

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शिक्षा के उद्देश्य | aims of education in hindi | शिक्षा के क्या उद्देश्य हैं

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शिक्षा के उद्देश्य / Aims of Education

प्रत्येक प्रक्रिया को संचालित करने के लिये कुछ विशिष्ट उद्देश्य निर्धारित करने पड़ते हैं। शिक्षा भी एक प्रक्रिया है। अत: इसके भी कुछ निश्चित उद्देश्य अवश्य होने चाहिये। शिक्षा ही व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास की एक सार्थक प्रक्रिया है। अत: शिक्षाविदों ने शिक्षा के अलग-अलग उद्देश्यों एवं कार्यों को सुझाया है। ये उद्देश्य देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। इनका निर्धारण समय विशेष की आवश्यकता और शिक्षा की उपयोगिता के आधार पर होता है।

अब हम शिक्षा के सामान्य, वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों की चर्चा करेंगे-

(1) शिक्षा के सामान्य उद्देश्य

(i) चरित्र निर्माण एवं विकास का उद्देश्य
(ii) शारीरिक विकास का उद्देश्य
(iii) ज्ञान संबंधी उद्देश्य
(iv) जीवकोपार्जन का उद्देश्य
(v) सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य
(vi) आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य
(vii) संतुलित विकास का उद्देश्य
(viii) नागरिकता का उद्देश्य
(ix) अनुकूलन अथवा समायोजन का उद्देश्य
(x) आत्माभिव्यक्ति का उद्देश्य
(xi) आत्मानुभूति का उद्देश्य
(xii) अवकाश के उपयोग का उद्देश्य

(2) शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य

(3) शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य

शिक्षा के सामान्य उद्देश्य / general Aims of Education

शिक्षा हमारे जीवन के लिये आवश्यक है। इसके द्वारा व्यक्ति का व्यवहार, चरित्र, आचरण, मनोवृत्ति, भावनाओं, विचारों तथा ज्ञान आदि में परिवर्तन होता है। इस प्रकार वह सुखमय एवं शान्तिमय जीवन व्यतीत कर सकता है। इस सन्दर्भ में शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य हैं।
शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के उद्देश्यों को अधिक संगत, निश्चित एवं सम्बद्ध करने का प्रयास किया है। हम यहाँ शिक्षा के कुछ महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों का वर्णन करेंगे-

1. चरित्र-निर्माण एवं विकास का उद्देश्य
Aim of Character-Formation and Development

सामाजिक अथवा धार्मिक जीवन में व्यक्ति का चरित्रवान् होना आवश्यक है। एक अंग्रेज विद्वान् ने कहा है कि यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ खो दिया (Character is lost every thing is lost)। व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में शिक्षा सर्वाधिक योगदान देती है। मानव को मानव बनकर रहना सिखाना शिक्षा का परम लक्ष्य है। यदि व्यक्ति का चरित्र ऊँचा है तो वह सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर को उच्चता के शिखर पर पहुँचा देगा।


(1) स्पेन्सर (Spencer) ने लिखा है, “मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता चरित्र है, शिक्षा नहीं।”

(2) हस्बर्ट (Herbert) के अनुसार, “शिक्षा का सम्पूर्ण कार्य एक बन्द में ही बाँधा जा सकता है और वह है-नैतिकता।”


कुछ विद्वान् चरित्र का विस्तृत एवं भिन्न अर्थ लेते हैं। जिन मनुष्यों का चरित्र बन जाता है, वे सभी अपने अनुसार अपने उद्देश्य तथा आदर्श निर्धारित करते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि वे सिद्धान्त नैतिकता की ओर ही ले जायें। कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि मनुष्य का चरित्रवान् होना तभी तक संगत है जब वह नैतिक कार्यों पर अधिक बल दे।

2.शारीरिक विकास का उद्देश्य / Aim of Physical Development

बालक का शारीरिक विकास शिक्षा स्वयं नहीं करती बल्कि शिक्षा शरीर के विकास में सहायता अवश्य करती है कि बालक का शारीरिक विकास सन्तुलित रूप से किस प्रकार किया जा सकता है? शारीरिक विकास का उद्देश्य बालक के शारीरिक विकास के उपायों के साथ-साथ क्रियात्मक पक्ष को व्यावहारिक रूप भी देता है। अरस्तू का विचार है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क होता है (Sound mind in a sound body)। अत: शिक्षा की प्रक्रिया बालक के शारीरिक विकास पर निर्भर करती है।

(1) रूसो (Rousseau) का विचार है कि, “शारीरिक शक्ति ही व्यक्ति को स्फूर्तिमान एवं क्रियाशील बनाती है। व्यक्ति अपने विकास का स्वयं उत्तरदायी होता है। यदि वह अपना शारीरिक विकास सन्तुलित रूप से करता है तो उसको शिक्षा के अन्य उद्देश्यों को प्राप्त करने में अधिक कठिनता अनुभव नहीं होती।”

(2) रेबेलस (Rabelas) के अनुसार-“स्वास्थ्य के बिना जीवन, जीवन नहीं है। यह केवल स्फूर्तिहीनता और वेदना की दशा है, मृत्यु का प्रतिरूप है।”

(3) डॉ. जॉनसन (Dr. Johnson) के शब्दों में-“स्वास्थ्य को बनाये रखना नैतिक एवं धार्मिक कर्त्तव्य है क्योंकि स्वास्थ्य ही सब सामाजिक गुणों का आधार है।”

3.ज्ञान सम्बन्धी उद्देश्य / Knowledge Related Aim

विवेकशील एवं ज्ञानी पुरुष का सर्वत्र सम्मान होता है। शिक्षा का उद्देश्य बालक को विभिन्न विषयों के बारे में विस्तृत ज्ञान प्रदान करना है। संसार के प्रसिद्ध दार्शनिक ज्ञानार्जन पर अत्यधिक बल देते हैं। कुछ प्रकृति से सम्बन्धित ज्ञान को महत्त्वपूर्ण समझते हैं तो कुछ के व्यावहारिक पहलू को महत्त्व देते हैं-

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(1) सुकरात (Socrates) के अनुसार-“जिस व्यक्ति को सच्चा ज्ञान है वह सद्गुणी के सिवाय और कोई नहीं हो सकता।”

(2) हुमायूँ कबीर (Humayun Kabir) के शब्दों में-“शिक्षा का उद्देश्य भौतिक संसार और समाज के विचारों तथा आदर्शों का ज्ञान प्राप्त करना है। इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना निजी उन्नति और समाज सेवा के लिये आवश्यक है।”

4.जीविकोपार्जन का उद्देश्य / Aim of Vocation

अस्तित्व की रक्षा के लिये आवश्यक है कि मनुष्य अपनी जीविका कमाने के योग्य बने। यदि वह स्वयं को संसार में समायोजित करना चाहता है अथवा समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है तो जीविका कमाना आवश्यक है, अन्यथा जीविका रहित मनुष्य समाज पर एक बोझ होता है। केवल ज्ञान की प्राप्ति, शारीरिक विकास, चारित्रिक विकास ही सब कुछ नहीं है। अतः शिक्षा ऐसी हो जो सभी उद्देश्यों की पूर्ति के साथ-साथ मनुष्य को जीविका कमाने के योग्य बनाये।

(1) जॉन डीवी (John Dewey) के अनुसार-“यदि एक व्यक्ति अपनी जीविका प्राप्त करने में असमर्थ है तो इस बात की आशंका रहती है कि वह कहीं चरित्रहीन न हो जाय और दूसरों को हानि न पहुँचाये।”

(2) एच.एच. हॉर्न (H. H. Horne) के शब्दों में-“मानव रोटी के बिना नहीं रह सकता। साथ ही केवल रोटी पर ही मानवीयता और आध्यात्मिकता के बिना नहीं रह सकता।”

इस प्रकार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति की समस्याओं का समाधान करना है जिससे वह सफल सामाजिक एवं मानवीय जीवन निभा सके।

5. सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य / Aim of Cultural Development

प्राचीन संस्कृति के इतिहास के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जिसके आधार पर किसी देश की संस्कृति का विकास सम्भव है, जो शिक्षा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित की जाती है।

(1) गाँधीजी (Gandhiji) के अनुसार-“संस्कृति मानव-जीवन की आधारशिला और प्रारम्भिक वस्तु है। वह आपके आचरण और व्यक्तिगत व्यवहार की छोटी से छोटी बातों को परावर्तित करती है।”

(2) ई. वी. टाइलर (E. G. Tailer) के विचार में-“संस्कृति वह जटिल समग्रता जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, प्रथा तथा वह अन्य योग्यताएँ और आदतें सम्मिलित हैं, जिनको मनुष्य समाज के सदस्य के रूप में प्राप्त करता है।” मनुष्य शिक्षा की सहायता से समाज की विरासत को प्राप्त करता है तथा फिर उसे अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करता है। शिक्षा के माध्यम से ही संस्कृति को सुरक्षित रखा जाता है और नयी पीढ़ी को दिया जाता है। जिसे नयी पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देती है।

सभी देशों में शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिये कि बालक को कलात्मक रूप से सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा दी जाये, जिससे बालक उनका समुचित अर्थ समझ सकें और अपने अनुसार उनको एक नया मोड़ दे सकें।

इस प्रकार सांस्कृतिक शिक्षा बालक के लिये लाभदायक अवश्य है, परन्तु उसको वर्तमान समय में अत्यधिक प्रधानता नहीं देनी चाहिये। प्राचीन संस्कृति का लाभदायक तथा व्यावहारिक ज्ञान अवश्य दिया जाना चाहिये।

6.आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य / Aim of the Spiritual Development

आदर्शवादियों का विचार है कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक की आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ का विकास करना है। उन्होंने बालक की भौतिक उन्नति को उद्देश्य नहीं माना। आध्यात्मिकता बालक के विचारों में पवित्रता लाती है तथा उसकी चिन्तन-शक्ति का विकास करती है।
आध्यात्मिक एकता व्यक्ति की धार्मिक प्रवृत्ति को जाग्रत करके व्यक्ति के क्रियाकलापों पर नियन्त्र’ रखती है, जिससे बालक समाज विरोधी कार्य नहीं करता और अपने व्यक्तित्व का विकास धनात्मक पक्ष में ले जाता है, उसमें भाई-चारे, त्याग तथा सहयोग की भावना का विकास होता है।

7.सन्तुलित विकास का उद्देश्य / Aim of the Balanced Development

व्यक्ति के सन्तुलित विकास के लिये शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य उसके शारीरिक, मानसिक, नैतिक, भावात्मक और कलात्मक आदि पक्षों को विकसित करना है। व्यक्ति की शक्तियों एवं क्षमताओं का सन्तुलित विकास आवश्यक है।

(1) पेस्टालॉजी ने कहा है कि,”व्यक्ति का एकांगी विकास अप्राकृतिक तथा असत्य है। व्यक्ति की समस्त शक्तियों का समुचित एवं पूर्ण विकास ही अच्छी शिक्षा है। एक-एक क्षमता को पूर्णरूप से महत्त्व देना मनुष्य की प्रगति के स्वाभाविक सन्तुलन का ह्रास एवं विनाश कर देना है।”

(2) गाँधीजी ने भी व्यक्ति के समग्र विकास का समर्थन किया है,“शरीर, मस्तिष्क और आत्मा इन तीनों का उचित और सामंजस्यपूर्ण मिश्रण, पूर्ण मनुष्य के निर्माण के लिये आवश्यक है और यही शिक्षा की सच्ची व्यवस्था का आधार है।”

8. पूर्णतामय जीवन का उद्देश्य / Aim of Complete Living

जब शिक्षा व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करती है तो उसका जीवन पूर्ण रूप से सुखमय तथा शान्तिमय हो जाता है, यह वैज्ञानिक विचारधारा है। हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) की दृष्टि में “शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य हमें वह क्षमता प्रदान करना है जिसके द्वारा हम एक पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं।”
बालक जीवन में आने वाली किसी भी प्रकार की समस्या के लिये तैयार हो जाता है। इससे आदर्शवादिता, सहकारिता, भाई-चारा, प्रेम आदि गुण उत्पन्न हो जाते हैं। अत: मानवीय सम्बन्धों को प्रोत्साहन मिलता है।

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9, नागरिकता का उद्देश्य / Aim of Citizenship

शिक्षा नागरिक को देश की परिस्थितियों से परिचित कराती है। नागरिक में राष्ट्रीय-भावना का विकार करती है। देश के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान देती है।  देश की प्रशासन व्यवस्था के विषय में ज्ञान देती है। नागरिकों के सर्वांगीण विकास के द्वारा उन्हें देश के प्रति प्रगतिशील बनाने को प्रेरित करती है। राष्ट्र की आन्तरिक, बाह्य शान्ति तथा सुव्यवस्था रखने में सहायता देने योग्य बनाती है।

इस प्रकार अच्छे नागरिक का निर्माण शिक्षा के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। परन्तु केवल नागरिकता के लिये राष्ट्रीय भावना की शिक्षा नहीं देनी चाहिये बल्कि अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास भी आवश्यक है, जिससे “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना को सार्थकता प्रदान की जा सके और विश्व में शान्ति की स्थापना हो सके।

10. अनुकूलन अथवा समायोजन का उद्देश्य / Aim of Adjustment

शिक्षा व्यक्ति को वातावरण के विषय में ज्ञान देती है।  बौद्धिक विकास के साथ-साथ वातावरण के सदुपयोग पर भी बल देती है, जिससे विषम परिस्थितियों से समायोजन किया जा सके।  व्यक्ति को व्यावहारिक ज्ञान भी प्रदान करती है। वह बालक को सामाजिक वातावरण से अनुकूलन कराती है। आवश्यकतानुसार वातावरण में संशोधन (Modification) भी करने पर बाध्य करती है।  बालक के विद्यालयी, प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरणों से समायोजन करने में वह सहायक होती है। इस प्रकार शिक्षा के द्वारा बालक वातावरण के कारण तथा परिणामों को जान जाता है। अत: स्वयं नवीन प्रयोगों के आधार पर वातावरण में वह परिवर्तन कर लेता है।

11.आत्माभिव्यक्ति का उद्देश्य / Aim of Self-Expression

शिक्षा के द्वारा बालक को लिपियों का ज्ञान कराया जाता है, जिसके आधार पर बालक किसी भी भाषा में अपने विचार रख सकते हैं। शिक्षा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है, जिससे उसकी प्रवृत्ति अधिक विकसित हो जाती है। इससे बालक को अपनी योग्यता के प्रदर्शन का अवसर प्राप्त हो जाता है। शिक्षा के माध्यम से ही आदर्श प्रदर्शन सम्भव है। अत: शिक्षा द्वारा बालक का स्वाभाविक विकास होना चाहिये तथा उसकी जिज्ञासा एवं आत्म-गौरव को प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिये अन्यथा बालक का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध हो जाता है और उसमें मानसिक असन्तुलन पनपने लगता है। टी. रेमण्ट (T. Raymont) का इस सम्बन्ध में दृष्टिकोण है-“उपचार रूप में स्वतन्त्र आत्म-प्रदर्शन का उपयोग अन्त में अपने स्वयं के उद्देश्य को नष्ट कर देगा।” अर्थात् यह उद्देश्य समाज के हित में नहीं है। अत: बालकों को इसका अध्ययन कराना असामाजिकता फैलाना है।

12. आत्मानुभूति का उद्देश्य / Aim of Self-realization

स्वयं के गुणों का पता लगाना ही बालक के लिये आत्मानुभूति है, जो शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है। शिक्षा द्वारा बालक को अपने विषय में पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह अपनी कमियों को कम करके अपनी क्षमताओं एवं रुचियों को बढ़ावा देता है। इससे आध्यात्मिकता को जल मिलता है, जिससे विचारों में शुद्धता आती है और बालक में सर्वोत्तम गुणों का विकास होता है।

13. अवकाश के उपयोग का उद्देश्य / Aim of Leisure Time Utilization

सभ्यता के विकास के साथ-साथ व्यक्ति की वैज्ञानिक उन्नति भी उच्चता के शिखर को चूम रही है। अत: व्यक्ति को कार्य करने के लिये कम से कम समय देना पड़ता है इसलिये आधुनिक औद्योगिक युग में आवश्यक है कि खाली समय का सदुपयोग किया जाये। मानव जीवन में अवकाश का अत्यधिक महत्त्व है। अतः खाली समय में बालकों को रचनात्मक कार्यों के लिये प्रशिक्षण देना चाहिये और उनकी रुचियों को संगीत, कला, चित्रकला, नृत्य आदि की ओर मोड़ देना चाहिये।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण तथा उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है, जिसमें बालक के सर्वांगीण विकास पर ध्यान दिया जाता है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति में ज्ञानार्जन, शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सामाजिक विकास, आध्यात्मिक विकास, आत्मानुभूति आदि गुणों का विकास होता है। अत: शिक्षा व्यक्ति को व्यावहारिक बनाती है, जिससे उसका पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन सम्पन्न हो सके और वह देश के स्तर को ऊँचा उठा सके।
अतः शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति और समाज का हित संरक्षण होना चाहिये। शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जो दोनों के व्यवहारों की सीमा का निर्धारण करे। न तो व्यक्ति की ही अवहेलना की जा सकती है और न समाज की। अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिये, जो दोनों का सन्तुलित विकास कर सके।

शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य / Individual Aims of Education

शिक्षा का प्रमुख केन्द्र-बिन्दु व्यक्ति को ही माना जाता है तो उससे सम्बन्धित कारणों पर भी शिक्षा का प्रभाव पड़ना आवश्यक है। शिक्षा के सभी दर्शनों में से व्यक्ति के विकास से सम्बन्धित व्यक्तिगत उद्देश्यों की किसी ने भी अवहेलना नहीं की है। इस सम्बन्ध में कुछ विचार निम्नलिखित प्रकार से हैं-

(1) रस्क (Rusk) के अनुसार, “शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व को ऊँचा उठाना या गुण सम्पन्न करना है। इस व्यक्तित्व का मुख्य लक्षण सार्वभौमिक मूल्यों से युक्त होना है।”

(2) रूसो (Rousseau) के मत में,“शिक्षा को इन्द्रियों का उचित प्रयोग करके ज्ञान का द्वार खोलना है।”

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(3) फ्रॉबेल के अनुसार, “शिक्षा को मनुष्यों का पथ-प्रदर्शन इस प्रकार करना चाहिये कि उन्हें अपने आपको प्रकृति का सामना करने का और ईश्वर से एकता स्थापित करने का स्पष्ट ज्ञान हो जाय।”

(4) टी. पी. नन् के शब्दों में, “शिक्षा को ऐसी दशाएँ उत्पन्न करनी चाहिये, जिनसे वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो सके और मानव को अपना मौलिक योगदे सकें।”

(5) जॉन डीवी के अनुसार, “शिक्षा के उद्देश्य समान नहीं होते। ये विभिन्न बालकों के लिये भिन्न होते हैं और जैसे-जैसे बालक की उम्र बढ़ती है तो उद्देश्य भी बदल जाते हैं।”

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य
Social Aims of Education

शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। व्यक्ति का समाज से अटूट सम्बन्ध है। अत: व्यक्ति के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से समाज का भी विकास होता है। कुछ विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं वे कहते हैं कि व्यक्तिगत उद्देश्य में केवल व्यक्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है। शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के अन्तर्गत व्यक्ति को नहीं बल्कि समाज को अधिक महत्त्व दिया जाता है।

सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाली शिक्षा को ही पूर्ण समझा गया है। समाज ही एक ऐसा समुदाय है जो व्यक्ति के लिये आवश्यक है।अतः समाज का विकास व्यक्ति के विकास का आधार है। मनुष्य समाज में जन्म लेता है। आरम्भ से ही वह अपने माता-पिता, भाई-बहन, पड़ोस, देश तथा वातावरण से कुछ न कुछ सीखता है। अत: समाज का विकास नहीं होगा तो उसकी शिक्षा भी दोषपूर्ण ही होगी।

इस प्रकार समाज के अभाव में व्यक्ति का जीवन पाशविक ही रह जाता है। समाज के ऋण से मुक्त होना उसके लिये असम्भव एवं कठिन कार्य है। सामाजिक शिक्षा नागरिकता का आदर्श पाठ पढ़ाती है। शिक्षा के इस उद्देश्य को नागरिकता का उद्देश्य (Aim of Citizenship) भी कहा जाता है। विद्यालय में व्यक्ति के चरित्र के साथ-साथ समाज की श्रेष्ठता का भी ध्यान रखना चाहिये।

(1) ब्राण्डफोर्ड के अनुसार, “एक अच्छा विद्यालय सम्पूर्ण समाज को श्रेष्ठता के स्तर पर पहुँचाने का प्रयास करता है, जिससे वह जीवन के श्रेष्ठ आदर्शों का अनुसरण कर सके।”

(2) रेमण्ट (Raymont) के शब्दों में, “समाजविहीन व्यक्ति कोरी कल्पना है।”

(3) रॉस के शब्दों में, “सामाजिक वातावरण से अलग वैयक्तिकता का कोई मूल्य नहीं है और व्यक्तित्व अर्थहीन शब्द है क्योंकि इसी में इनको विकसित और कुशल बनाया जाता है।”

वर्तमान भारत में शिक्षा के उद्देश्यों को प्रभावित करने वाले कारक

शिक्षा के उद्देश्य देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। अत: वर्तमान भारत में शिक्षा के उद्देश्यों को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है-

1. दर्शन – शिक्षा के उद्देश्यों पर दर्शन का अधिक प्रभाव पड़ता है। प्रकृतिवादियों के अनुसार आत्माभिव्यक्ति,वैयक्तिकता का विकास, सम्बद्ध क्रियाओं का निर्माण, प्रवृत्तियों का शोधन, मार्गान्तरीकरण और समन्वय तथा प्रजातीय प्रगति की प्राप्ति ही शिक्षा के उद्देश्य थे परन्तु आदर्शवाद के अनुसार आत्मानुभूति, चरित्र-निर्माण, आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास आदि शिक्षा के उद्देश्य थे।

2. जीवन दर्शन –समाज में रहने वाले व्यक्तियों को जीवन जीने के ढंग का भी शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रभाव पड़ता है।

3. राजनैतिक विचारधारा –शासन करने वाली सरकार ही शिक्षा की व्यवस्था का कार्यभार सम्भालती है अत: वह अपने अनुरूप ही शिक्षा के ढाँचे का गठन करती है। इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों पर तत्कालीन सरकार का प्रभाव पड़ता है।

4. सामाजिक विचारधारा –समाज की दशाओं का शिक्षा के उद्देश्यों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। भारतीय शिक्षा का उद्देश्य केवल समाज को शिक्षित करना तथा जीवनयापन के साधन जुटाना मात्र है।

5. आर्थिक दशाएँ –किसी देश का आर्थिक स्तर वहाँ की शिक्षा के उद्देश्यों को प्रभावित करता है। भारत जैसे देश में आर्थिक साधनों की कमी के कारण शिक्षा के ऊँचे उद्देश्यों को निर्धारित करके भी उचित साधनों के अभाव में प्राप्त नहीं किया जा सका है।

6. तकनीकी उन्नति –शिक्षा के उद्देश्यों पर उस देश की तकनीकी उन्नति की अमिट छाप पड़ती है। यदि देश विकसित है तो उनकी शिक्षा में और अधिक तकनीकी को बढ़ावा देना तथा नवीनखोजों को प्रोत्साहन देना प्रमुख उद्देश्य होंगे।

7.प्राकृतिक दशाएँ – किसी देश की शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण वहाँ के दर्शन,व्यक्तियों के जीवन दर्शन,सामाजिक दशा, आर्थिक दशा, राजनैतिक दशा तथा तकनीकी उन्नति और प्राकृतिक दशाओं के आधार पर ही होता है।


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