दोस्तों आज आपको मनोविज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पाठ चिंतन का अर्थ एवं परिभाषा,चिंतन के प्रकार,चिंतन के सोपान आदि की विस्तृत जानकारी प्रदान करेंगे।
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चिंतन का अर्थ एवं परिभाषा,चिंतन के प्रकार,चिंतन के सोपान
मानवीय जीवन समस्याओं से भरा हुआ है। हम एक समस्या का हल खोज नहीं पाते दूसरी सामने उपस्थित हो जाती है।
यह समस्या हल नहीं होती और कभी-कभी प्रयत्न चिंतन को जन्म देता है।
दैनिक जीवन में बड़े एवं बुजुर्ग कहते हैं। कि करने से पहले सोचो। या अनुभव करने से पहले सोचो।
इसका मुख्य कारण है कि चिंतन एवं तर्क , समस्या समाधान और उचित निर्णय लेने में सहायता करते है।
चिंतन का अर्थ (meaning of thinking)
चिंतन शब्द का प्रयोग याद, कल्पना और अनुमान आदि के रूपों में किया जाता है।
दर्शनशास्त्र में यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व की प्रगति मानव की चिंतन शक्ति पर निर्भर करती है।
चिंतन के द्वारा वास्तविकता का पता लगाया जाता है। और वास्तविकता विज्ञान को जन्म देती है।
जैसे परीक्षा में सही उत्तर खोजने के लिए चिंतन, नए मकान को बनवाने का चिंतन एवं दूर से आने वाले रिश्तेदार मित्र या कोई नए व्यक्ति से संबंधित चिंतन।
चिंतन की परिभाषाएं (definition of thinking)
वैलेंटाइन के शब्दों में
“मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से चिंतन शब्द का प्रयोग उस क्रिया के लिए किया जाता है।जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य,उद्देश्य की ओर अविराम गति से प्रवाहित होते हैं।”
गिलफोर्ड के अनुसार
चिंतन प्रतीकात्मक व्यवहार है यह सभी प्रकार की वस्तुओं और विषयों से संबंधित है।
गैरेट के अनुसार
चिंतन एक प्रकार का अव्यक्त एवं रहस्य पूर्ण व्यवहार होता है।जिसमें सामान्य रूप से प्रतीकों का प्रयोग होता है।
चिंतन के प्रकार (types of thinking)
प्रायः चिंतन के चार प्रकार हैं
(1) प्रत्यक्षात्मक चिंतन (perceptual thinking)
(2) प्रत्यात्मक/ अवधारणात्मक चिंतन (conceptual thinking)
(3) विचारात्मक चिंतन (reflective thinking)
(4) सृजनात्मक चिंतन (creative thinking)
चिंतन के और भी प्रकार हैं
(1) मूर्त चिंतन और अमूर्त चिंतन (concreat and abstruct thinking)
(2) अपसारी चिंतन और अभिसारी चिंतन (divergent and convergent thinking)
प्रत्यक्षात्मक चिंतन (perceptual thinking)
जब हम किसी व्यक्ति को बार-बार अपने घर आते देखते हैं। तो उसके व्यवहार का मूल्यांकन हमारे चिंतन के द्वारा स्वतः हो जाता है।
क्योंकि बार-बार आने से जो अनुभव एकत्रित किए गए वह सभी उसके व्यवहार को स्पष्ट करते हैं। अतः उस व्यक्ति को देखकर उसके व्यवहार का जागृत हो जाना ही प्रत्यक्षात्मक चिंतन होता है।
प्रत्यात्मक चिंतन / अवधारणात्मक चिंतन (conceptual thinking)
मानव मस्तिष्क ज्ञान या परिचय के फल स्वरुप मस्तिष्क में प्रत्यय स्थापित करता है।
यही प्रत्यय पुनः जाग्रत होकर वस्तु को पुनः स्मरण कराने में सहायक होते है।
जैसे छात्र अध्यापक को देखकर सर आ गए यानी अध्यापक शब्द पूर्णता का बोध कराता है। और छात्र उसका पूर्ण ज्ञान भी रखते हैं।
अतः भाषा एवं नाम का प्रयोग प्रत्यात्मक चिंतन की विशेषता होती है।
विचारात्मक चिंतन (reflective thinking)
शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी ने विचारात्मक चिंतन को ही चिंतन माना है।
इसमें विचार और तर्कों को एक क्रम में स्थापित करके निष्कर्ष निकाले जाते हैं। जो व्यवहारिक एवं सामाजिक होते हैं।
सृजनात्मक चिंतन (creative thinking)
जब किसी भी विचार क्रिया के माध्यम से नवीन वस्तु या ज्ञान की खोज की जाती है तो उस सृजनात्मक चिंतन होता है।
इसमें वस्तुओं घटनाओं एवं स्थितियों के प्रकृति की व्याख्या करने के लिए कार्य-कारण के बीच नवीन संबंध स्थापित करने होते हैं।
इसमें व्यक्ति स्वयं समस्या खोजता है और उसके हल को ज्ञात करता है। वर्तमान उन्नति इसी का परिणाम है।
मूर्त चिंतन (concreat thinking)
इस का संबंध किसी वस्तु के बाहरी आवरण तक भाग से होता है। तथा इसके स्वरूप एवं आकार के ज्ञान को प्रकट करता है।
यह चिंतन की प्रक्रिया मूर्त वस्तुओं एवं मूर्त विचारों से संबंधित होती है।
जैसे किसी चित्र का वर्णन करना एवं स्वरूप बताना।
इसका संबंध भौतिक जगत से होता है।
अमूर्त चिंतन (abstruct thinking)
अमूर्त चिंतन का संबंध वस्तु के भीतर असीमित होता है जो कि वस्तु के मूल कारण एवं मूल तत्वों से संबंधित होता है। अमूर्त चिंतन का संबंध चित्र वर्णन से नहीं होता वरन वह चित्र के मूल उद्देश्य एवं उसके निर्माण के कारणों से होता है।
इसका संबंध मानसिक प्रक्रिया मानसिक जगत से होता है।
अपसारी चिंतन (divergent thinking)
अपसारी चिंतन के अंतर्गत व्यक्ति एक ही व्यवस्था का भिन्न-भिन्न रूपों में चिंतन करता है।
दूसरे शब्दों में
इस चिंतन के माध्यम से व्यक्ति के लिए किसी समस्या का समाधान भी विभिन्न विधियों से करने पर विचार करता है।
जैसे
यदि बात की जाए ईश्वर को प्रसन्न करने की तो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए अपसारी चिंतन के अंतर्गत ईश्वर को दान, कर्म, भक्ति आदि के माध्यम से प्रसन्न किया जा सकता है।
अभिसारी चिंतन (convergent thinking)
इस प्रकार के चिंतन की प्रक्रिया में किसी भी विषय पर एकांगी चिंतन किया जाता है। जो कि उसके लिए आवश्यक होता है।
इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति किसी समस्या का समाधान श्रेष्ठ विचार या तरीके से करता है।
जैसे
यदि बात की जाए ईश्वर को प्रसन्न करने की तो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए अभिसारी चिंतन के अंतर्गत ईश्वर को भक्ति से सबसे अधिक प्रसन्न किया जा सकता है। अतःभक्ति इस समस्या का सर्वोत्तम उपाय है।
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चिंतन के सोपान (steps of thinking)
इसके 6 सोपान है–
(1) समस्या की पहचान (recognization of problem)
सर्वप्रथम चिंतन करने से पहले हमे उस विषय से संबंधित समस्या की पहचान करना है की वास्तव में समस्या क्या है।
(2) समस्या का आकलन (Appreciation of problem)
समस्या की पहचान होने के बाद हमे उसका आकलन करना है की समस्या कितनी बड़ी है या छोटी है क्योंकि उसी प्रकार से उसका हल ढूंढ़ा जाएगा।
(3) सम्बन्धित तथ्यों का संकलन (collection of data)
उस समस्या से संबंधित तथ्य जो हल करने में मदद करे उनका संकलन करे।
(4) उपयुक्त तथ्य को लागू करना (applying using data)
संकलित तथ्य में उपयुक्त तथ्य का चुनाव करना जो समस्या हल करने में उपयुक्त हो।इस तथ्य को लागू करना।
(5) निष्कर्ष पर पहुंचना (driving at conclusion)
उपयुक्त तथ्य को लागू करने के बाद चिंतन का पांचवा सोपान है निष्कर्ष पर पहुँचना। अर्थात तथ्य लागू करने के बाद क्या निष्कर्ष निकला ये जानना ।
(6) निष्कर्ष का परीक्षण(testing conclusion)
चितन का अंतिम सोपान है निष्कर्ष का परीक्षण अर्थात निष्कर्ष निकलने के बाद उसका परीक्षण करे। और देखे की समस्या का जो हल या निष्कर्ष निकला है। वह सही आया है की नही अर्थात समस्या हल हो गयी है की नहीं।
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चिंतन की विशेषतायें || चिंतन के पद (characteristics of thanking)
(1) संज्ञानात्मक प्रक्रिया
चिंता नहीं संज्ञानात्मक प्रक्रिया है। यह स्वतः ही नहीं होती बल्कि प्रयत्न करना पड़ता है। प्रयत्न में चुनाव सीखना वाद-विवाद और प्राप्ति आदि प्रक्रियाओं के द्वारा ही चिंतन संभव हो पाता है।
(2) उद्देश्यपूर्णता
चिंतन की क्रिया उद्देश्य पूर्णता की ओर अग्रसर रहती है।इसमें दिवास्वप्न या कल्पना आदि उद्देश्यहीन क्रियाओं का कोई भी स्थान नहीं रहता है।
(3) समस्या समाधान
चिंतन के द्वारा समस्या समाधान होता है। व्यक्ति का व्यवहार जब उसे संतोष या सुख नहीं देता तो समस्या उत्पन्न होती है। यह समस्या ही चिंतन को जन्म देती है।
(4) प्रतीकात्मक क्रिया
चिंतन एक प्रतीकात्मक क्रियाएं क्योंकि चिंतन मुख्य रूप से प्रतीकों पर आधारित मानसिक क्रिया है।
चिंतन के उपकरण || चिंतन के साधन (sources or instruments of thinking)
(1) प्रतिमाएं (images)
मानव अनुभव प्रतिमाओं के आधार पर व्यक्त होता है। हम जो कुछ देखते हैं, करते हैं, सुनते हैं सभी का आधार मन में विकसित प्रतिमा होती है।
इसलिए इनको स्मृति प्रतिमा, दृश्य प्रतिमा,श्रव्य प्रतिमा या कल्पना प्रतिमा आदि का नाम देते हैं।
यह प्रतिमा या वस्तु व्यक्तियों में विचार से निर्मित होती हैं। चिंतन में इन्हीं को आधार बनाया जाता है।
(2) प्रत्यय (concept)
प्रत्यय सामान्य वर्ग के लिए सामान्य विचार होता है। जो सामान्य वर्ग की सभी वस्तुओं या क्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
चिंतन का महत्वपूर्ण साधन प्रत्यय भी माना जाता है।इनके द्वारा हमें संपूर्ण ज्ञान का बोध होता है।
(3) प्रतीक एवं चिन्ह (symbols and signs)
प्रतीक एवं चिन्ह मूक रहते हुए भी अपना अर्थ स्पष्ट या व्यक्त करने में समर्थ होते हैं।
सड़क पर बने प्रतीक एवं चिन्ह सही गति एवं सुरक्षा को स्पष्ट करते हैं। इससे समय एवं शक्ति की बचत होती है।
बालक विद्यालय के घंटे और घंटा में अंतर कर लेते हैं।क्योंकि उसे सुनकर उनकी चिंतन शक्ति अर्थ लगाती है। इसी प्रकार जोड़ तथा गुणा के चिन्ह में अंतर कर लेते हैं कि हमें क्या करना है।
(4) भाषा (language)
भाषा का प्रयोग सामान्यतः होता रहता है। विद्वानों ने भाषा के पीछे चिंतन शक्ति को बतलाया है।
सामाजिक विकास भाषा संकेतों एवं इशारों से भी प्रकट होती है। जैसे मुस्कुराना ,गर्दन हिलाना, अंगूठा दिखाना आदि।
(5) सूत्र (formula)
हमारी प्राचीन परंपरा रही है कि हम ज्ञान को छोटे-छोटे सूत्रों में एकत्रित करके संचित करते हैं।
इनमें गणित विज्ञान के सूत्र आते हैं।सूत्र को देखकर हमारी चिंतन शक्ति उसमें निहित संपूर्ण ज्ञान को प्रकट करती है।
चिंतन का विकास || शिक्षा द्वारा चिंतन का विकास || चिंतन विकास के तरीके (development of thinking by education / methods of thinking development)
(1) नवीन अनुभव
चिंतन की सतत प्रक्रिया नवीन अनुभवों के द्वारा संपन्न होती है।
यदि हमें हर क्षेत्र का अनुभव है तो हमारी चिंतन की प्रक्रिया अधिक सुचारू एवं मजबूत होगी तथा हमें हल की प्राप्ति जल्द होगी।
(2) नवीन सूचनाएं
हमारे पास नवीन सूचनाएं हैं। तो हम उनके द्वारा किसी समस्या में चिंतन करके हल को जल्दी प्राप्त कर सकते हैं।
(3) कल्पना एवं तर्क
हमारे मस्तिष्क में कल्पना एवं तर्क की क्षमता अधिक होने पर भी हम चिंतन प्रक्रिया के द्वारा किसी समस्या का हल ढूंढ सकते हैं।
(4) अनुसंधान
शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले विभिन्न प्रकार के अनुसंधान चिंतन के विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
(5) निर्देशन एवं परामर्श
शिक्षक द्वारा समय-समय पर छात्रों को निर्देशन एवं परामर्श प्रदान किया जाता है।
निर्देशन एवं परामर्श की प्रक्रिया के द्वारा छात्रों की प्राचीन अवधारणा में संशोधन किया जाता है।
इस प्रकार के अनेक निर्देशन एवं परामर्श छात्रों के चिंतन के विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
(6) प्रयोग
छात्रों द्वारा विविध प्रकार के प्रयोग द्वारा भी चिंतन की प्रक्रिया को संपन्न किया जाता है। विविध प्रयोग छात्रों में चिंतन प्रक्रिया का विकास करते हैं।
(7) संश्लेषण एवं विश्लेषण
विश्लेषण एवं संश्लेषण की प्रक्रिया भी विविध अवधारणाओं का निर्माण करती है। तथा उनमें परिवर्तन करती है।
इनकी प्रक्रिया चिंतन के विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।
(8) ज्ञान का विस्तार
सामान्य रूप से देखा जाता है कि जैसे-जैसे ज्ञान के विस्तार की प्रक्रिया संपन्न होती है। वैसे वैसे चिंतन का मार्ग प्रशस्त होता जाता है।
इस प्रकार नवीन ज्ञान अज्ञान का विस्तार हमारी चिंतन प्रक्रिया को बढ़ाने में सहायता प्रदान करता है।
(9) बुद्धि
यदि किसी में बुद्धि ज्यादा है अर्थात उसमें बौद्धिक क्षमता का स्तर अधिक है। तो उसकी चिंतन प्रक्रिया में परिपक्वता आएगी ।
अर्थात वह किसी समस्या का चिंतन ज्यादा सरल तरीके से एवं जल्द ही हल प्राप्त कर लेगा।
(10) सर्वांगीण विकास
शिक्षक एवं शिक्षा ले की महत्वपूर्ण भूमिका होती है कि वह बालक का सर्वांगीण विकास करें।
क्योंकि यदि बालक सर्वांगीण विकास से परिपूर्ण है। तो वह प्रत्येक कार्य फिर चाहे वह चिंतन का ही हो या तर्क का सभी को वह अच्छे से कर पायेगा।
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